बहुराजकता का काल
उत्तराखण्ड बहु-कुलों का एक छत्ता
कार्तिकेयपुरवंशीय सुभिक्षराजदेव के पश्चात्, इस राजवंश के पराभवकालीन शासकों ने क्रमशः कार्तिकेयपुर (मूल राजधानी) तथा वैद्यनाथ-कार्तिकेयपुर (नयी राजधानी) में शासन किया। परन्तु शक्तिहीन होने के कारण वे सतलज के पश्चिम से लेकर पश्चिमी नेपाल तक विस्तृत साम्राज्य को अधिक काल तक अपने अधिकार में नहीं रख सके। उस समय, वर्तमान पश्चिमी नेपाल उत्तराखण्ड का ही अङ्ग था। फलस्वरूप पूर्वकालीन राजवंश, अधीनस्थ सामन्त तथा स्थानीय गढपति स्वतन्त्र हो गये। मध्य हिमालय में यह पुनः बहुराजकता का काल था। सम्पूर्ण उत्तराखण्ड बहु स्वतन्त्र कुलों का एक छत्ता बन गया था। परन्तु बहुराजकता की कालावधि समस्त उत्तराखण्ड में समान रूप से नहीं रही। इसके पश्चिमी भाग में एकीकरण का अभियान राजा जगतपाल के काल से द्रुतता से प्रारम्भ हो चुका था। परन्तु पूर्वी भाग कुमाऊँ में यह अवधि अपेक्षाकृत लम्बे काल तक व्याप्त दिखायी देती है। विभिन्न स्रोतों के आधार पर, अनुमान होता है कि कम-से-कम निम्नलिखित राजवंशों का उत्थान कार्तिकेयपुरवंशीय नरेशों के पराभव के उपरान्त हुआ :
एकचक्रा का बाहुबाण राजवंश
अल्लाटनाथ सूरि के निर्णयामृत में 'एकचक्रापुरी' के बाहुबाणवंशीय सात राजाओं के नाम मिलते हैं। एकचक्रा की एकता यमुना के पर्वतीय प्रदेश में स्थित वर्तमान चकरोता से की जाती है। निर्णयामृत (श्लोक १८) में भी स्पष्टत: उल्लेख है कि यमुना एकचक्रा के उपकण्ठ में बहती है। अल्लाटनाथ बाहुबाण वंश के पञ्चम राजा सूर्यसेन का आश्रित कवि था। अतएव समकालीन कृति होने के कारण, इसमें दी गयी इस राजवंश सम्बन्धी सूचनाएँ असंदिग्ध हैं। निर्णयामृत के अनुसार, इस वंश के तृतीय राजा उद्धरण ने “ढिल्ली नगरी पहुँचकर शक (मुसलमान) राजा के हस्तियों को आहत किया था" (श्लोक, ६-१०)। उद्धरण की इस सफलता को अत्युक्ति मानते हुए भी, विदित होता है कि उसकी राज्य सीमा दिल्ली सल्तनत की उत्तरी सीमा से अधिक दूर नहीं थी। “दिल्ली" का उल्लेख इस ग्रन्थ के रचनाकाल को निर्धारित करने में सहायक हो सकता है। इस नाम क अभिलेखीय सन्दर्भो को देखते हुए, निर्णयामृत का रचनाकाल चौदहवीं शती उत्तरार्द्ध में माना जा सकता है।
यद्यपि डॉ० भाण्डारकर' ने 'बाहुबाण' शब्द को चाहुवाण के लिए प्रयुक्त माना है। तथापि, मूल पाण्डुलिपियों के पुनरीक्षण तक, इस एकता को सरलता से स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इतना स्पष्ट है कि पँवारों द्वारा गढ़देश के एकीकरण से पूर्व, पश्चिमी गढ़देश की यमुना-घाटी में बाहुबाण वंश ने एक शती से अधिक काल तक शासन किया। इस राजवंश के सम्बन्ध में इससे अधिक सूचनाएँ अन्य किसी स्रोत से ज्ञात नहीं हो सकी हैं।
यद्यपि डॉ० भाण्डारकर' ने 'बाहुबाण' शब्द को चाहुवाण के लिए प्रयुक्त माना है। तथापि, मूल पाण्डुलिपियों के पुनरीक्षण तक, इस एकता को सरलता से स्वीकार नहीं किया जा सकता है। इतना स्पष्ट है कि पँवारों द्वारा गढ़देश के एकीकरण से पूर्व, पश्चिमी गढ़देश की यमुना-घाटी में बाहुबाण वंश ने एक शती से अधिक काल तक शासन किया। इस राजवंश के सम्बन्ध में इससे अधिक सूचनाएँ अन्य किसी स्रोत से ज्ञात नहीं हो सकी हैं।
पश्चिमी सीमान्त का राणा देवपाल
केदारभूमि के पश्चिमी सीमान्त, सिरमौर प्रदेश, के गढ़पति राणा देवपाल के सम्बन्ध में सूचना का एकमात्र स्रोत सिराज का तबकात-ई-नासिरी है। इसके अनुवादकों ने इस गढ़पति का नाम रणपाल अथवा राणा देवपाल हिन्दी लिखा है। मुसलमान इतिहासकार सिराज ने उसे एक शक्तिशाली गढ़पति बताया जिसे हिन्दू गढ़पति अपने में महान् मानते थे तथा “जिसकी वंशानुगत रीति शरणागत को आश्रय देना था।" उसकी शक्ति का केन्द्र 'सुन्तूर' का सुदृढ़ दुर्ग क था जिस पर मुसलमानों के अनेक आक्रमणों का वर्णन नासिरी में मिलता है। उसके राज्य का दूसरा दुर्ग-नगर ‘सलमूर' या सरमूर था। इस प्रकार, पश्चिमी दूण का सन्तूर प्रदेश तथा आस-पास का पर्वतीय भूभाग उसके राज्य में था। सुन्तूरगढ़ तथा सिलमूर (सिरमूर-सिरमौर) नामक उक्त दो दुर्ग-नगरों के स्थानों पर पूर्व में सिरमौर राजाओं की राजधानियाँ थीं।
तबकात-ई-नासिरी के अनुसार, राणा देवपाल ने दिल्ली के नासिरुद्दीन महमूद तथा बलवन के विरोधियों को १२५५ ई० में अपने राज्य में आश्रय दियाथा। अतएव नायब बलवन ने सुन्तूरगढ़ तथा सलमूर के दुर्ग-नगरों पर १२५७ ई० में आक्रमण कर उन्हें क्रूरतापूर्वक लूट लिया था। नासिरी में हिन्दुओं पर उसके लोमहर्षक अत्याचारों की गाथा अंकित है। बलवन मात्र लूट मार कर लौट गया, वह राणा की शक्ति का दमन नहीं कर सका। तबकात ई नासिरी में वर्णित है कि इससे पूर्व इस क्षेत्र में मुसलमानी सेना नहीं गयी थी। सम्भवत: १५वीं शती के अन्तिम दशक में पँवार राजा अजयपाल ने उसके राज्य पर अधिकार कर लिया। आईन-ई-अकबरी (ब्लाचमैन, पृ० ५३४) से जात होता है कि शाहजहाँ के राज्यकाल में सुन्तूरगढ़ पर श्रीनगर के राजा का अधिकार था
चाँदपुरगढ़ का परमार राजवंश
नवीं शती के अन्त से लेकर प्राय: सुभिक्षराजदेव के काल तक इस वंश के नरेश चन्द्रपुरगढ़ के आसपास के क्षेत्र में कार्तिकेयपुर के अधीन सामन्त पद पर रहे। इनकी एक अवर शाखा भिल्लङ्ग में शासन करती थी। इस वंश के राजा जगतपाल ने केदारखण्ड में बहुराजकता को समाप्त करने का जो कार्य हाथ में लिया था, उसकी पूर्णता का श्रेय महान् राजा अजयपाल को मिला। परमार वंश पर हम अगले अध्यायों में विस्तार से विचार करेंगे।
दुमग का गढ़पति मङ्गलसिंह
टिहरी गढ़वाल राज्य अभिलेखागार के एक हस्तलेख गढ़वाल का ऐतिहासिक वृत्तान्त, जो अनुश्रुतियों पर आधारित है, पर विश्वास करें तो वर्ष १२७५ में मन्दाकिनी-घाटी में दुमग का राजा भानुप्रताप का पुत्र मङ्गलसिंह कण्डारागढ़ में शासन कर रहा था। वर्ष १२७५ को विक्रमीय संवत् मानने पर यह तिथि १२१८ ई० होती है। रामायणप्रदीप, १.२० से उक्त वृतान्त की पुष्टि होती है, जिसमें पाठान्तर से दुर्मार्गदेशाधिपति मङ्गलसेन का उल्लेख है। उक्त हस्तलेख में उसके वंशजों द्वारा कई पीढ़ियों तक गढ़वाल पर राज करने का उल्लेख है। एक अनुश्रुति के अनुसार, कण्डारागढ़ का अन्तिम गढ़पति राजा नरवीरसिंह था। कालान्तर में, दुमग राज्य परमारों के अधीन हो गया।
मणदेव का राजवंश
किसी मणदेव ने, जो मन्दाकिनी-घाटी का राजा हो सकता है, शक ११६८ (= १२४६ ई०) में गुप्तकाशी के समीप नाला में एक मन्दिर का निर्माण किया। उसका शिलालेख उस मन्दिर-द्वार पर उत्कीर्ण है। मणदेव का नाम अन्य स्रोतों से प्राप्त नहीं होता। यदि उसका अस्तित्व स्वीकार करें तो वह भी परमारों के अधीन हो चुका होगा
कत्यूर घाटी में कातियुर राजवंश
सर्वप्रथम टी० एट्किन्सन ने पूर्व अध्याय में वर्णित कार्तिकेयपुर राजवंश को भी 'कत्यूरी वंश' के नाम से वर्णित किया है। तदन्तर ब० पाण्डे, राहुल सां०, शि०प्र० डबराल, आदि इतिहास लेखक उसी का अन्धानुसरण करते रहे। इस प्रकार, उन्होंने दो पृथक राजवंशों को एक मानकर इस भ्रान्ति को भावी पीढ़ियों को सौंप दिया।
वस्तुतः कातियुर वंश (तथा-कथित कत्यूरी वंश) का उत्थान मध्यकाल में 'वैद्यनाथ कार्तिकेयपुर' के पतनोपरान्त, कत्यूर-घाटी में ही तेरहवीं शती ई० के प्रथम चतुर्थाश में हुआ। कत्यूरी गाथाओं २ में इस वंश को 'कंथापुरी वंश' भी कहा गया है। गाथाओं के अनुसार, बैजनाथ के रणचूलाकोट में उनकी मुख्य राजधानी थी। उनकी सत्ता के अन्य केन्द्र 'वैराठ' तथा लखनपुर में थे। पाली-पछाऊँ की वंशावली में आसन्तिदेव को इस वंश का संस्थापक माना गया है। सत्ता के लिए. समकालीन राजवंश चन्दों से कातियुरों का संघर्ष चलता रहा। प्रीतमदेव (पिथौराशाही), धामदेव (दुलाशाही) तथा ब्रह्मदेव (बरमदेव) के नाम कातियुर गाथाओं में बारंबार सुने जाते हैं। पन्द्रहवीं शती ईसवी के अन्त में अथवा सोलहवीं शती ईसवी के प्रथम चतुर्थांश के आस-पास कत्यूर-घाटी से इस राजवंश का उच्छेद क्रमशः परमार अजयपाल और चन्दों ने किया
भाई जानकारी के लिए धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
if you have any dougth let me know