गढ़वाली भाषा का इतिहास । गढ़वाली भाषा की उत्पत्ति। गढ़वाली भाषा किसने बनाई।

गढ़राज्य की भाषा गढ़वाली रही है। इसके जन्म पर ग्रियर्सन से लेकर अब तक भाषाशास्त्री एकमत नहीं हैं। मेरे मत से गढ़वाली का जन्म ‘खश प्राकृत' से होना अधिक तार्किक प्रतीत होता है। खश आर्यों में से थे। वैदिक संस्कृति के पुरावशेष के रूप में , गढ़वाली में वैदिक शब्दों के प्रचलन को देखते हुए , यह मत अधिक सङ्गत प्रतीत होता है। मूल रूप से इसकी शब्दावली में संस्कृत , प्राकृत ' ६ तथा अपभ्रंश रूपों का ही बाहुल्य है । मध्यकाल में , मैदान से आयी विभिन्न जातियों के सम्पर्क से इसमें राजस्थानी आदि शब्दों का भी समावेश हुआ । इस काल के अन्त में मुसलमानी प्रभाव के कारण अरबी - फारसी के शब्द भी इसमें प्रविष्ट हो गये, परन्तु के गढ़वाली भाषा के लिएसदैव परकीय ही बने रहे ।


भाषाशास्त्री ग्रियर्सन ने गढ़वाली को " मध्य पहाड़ी हिन्दी " माना था । किन्तु गढ़वाली भाषा पर नव अनुसन्धानों से इसका जन्म हिन्दी से भी पूर्वकालीन प्रतीत होता है । दूसरे शब्दों में , इसका विकास हिन्दी की उप - बोलियों से पृथक् , स्वतन्त्र रूप से , पहले ही हो चुका था।

विभिन्न - अञ्चल नदी - धाराओं एवं पर्वतश्रेणियों से पृथक् होने के कारण , समस्त गढ़देश में एक - सी गढ़वाली भाषा नहीं बोली जाती रही । पँवार काल में, उसकी राजधानियों में गढ़वाली का जो परिनिष्ठित रूप बना उसे ' श्रीनगरी - टिहरी भाषा ' कहा गया है । यमुना के तटवर्ती पहाड़ों में , गढ़वाली - सिरमोरी बोलियों के प्रभाव से ' रवाँई- जौनसारी बोली ' का कुछ पृथक् रूप दिखायी देता है। राजधानियों से दूरस्थ मखा गढ़वाल में ' नागपुरी - बधाणी बोली ' तथा सलाण में ' चौन्दकोटी - सलाणी बोली ' के रूप दिखायी देते हैं । अपनी विषम भौगोलिक स्थिति के कारण , विभिन्न अञ्चलों में कितने ही रूप दिखायी देते हों, परन्तु समग्र रूप में ये ' गढ़वाली भाषा' के अन्तर्गत हैं । पँवार - शासनकाल में राजधानी से जिस परिनिष्ठित गढ़वाली में शासनादेश निर्गत होते थे , वे सीमावर्ती दूरस्थ अञ्चलों तक समस्त गढ़राज्य में पढ़े और समझे जाते थे। उत्तरी सीमान्तक प्रजा में यद्यपि उनके पारस्परिक बोलचाल में ' मारछा बोली' का प्रचलन था, जो गढ़वाली से पृथक् भोट भाषा से प्रभावित है और सीमान्तक जातियों में भोटदेश से अविरल व्यापार-सम्बन्ध के कारण विकसित हुई। तथापि ये लोग भी गढ़वाली भाषा बोलते तथा शासनादेशों को समझते थे।

अभिलेखों की भाषा :

पॅवारकालीन संस्कृति का विवेचन उनके अभिलेखों की भाषा पर दृष्टिपात किये बिना, अपूर्ण ही रहेगा। पँवार-अभिलेख या तो संस्कृत में हैं अथवा गढ़वाली भाषा में। संस्कृत-अभिलेखों में, वि०सं० ६४५ का चान्दपुरगढ़-शिलालेख सर्वप्राचीन है जो छन्दोबद्ध है। तदन्तर, अनन्तपाल (द्वि०) का धारसिल-लेख, सहजपाल का देवप्रयाग वामनगुहा-लेख, प्रदीपशाह का डाँग-लेख, सुदर्शनशाह के दो बाड़ाहाट-लेख, आदि भी संस्कृत - में हैं। तथापि उपलब्ध संस्कृत-लेखों की संख्या अल्प है तथा बहुधा वे पँवार के पूर्तधर्म से सम्बन्धित हैं।

दूसरी ओर, पँवारों के सम्पूर्ण ताम्रपत्र तथा शासनादेश गढ़वाली भाषा में हैं। गढ़वाली के उपलब्ध लेखों में प्राचीनतम लेख जगतपाल का देवप्रयाग-दानपत्र (वि०सं० १५१२) है। इसके पश्चात्, महाराजा कीर्तिशाह तथा नरेन्द्रशाह के शासनकाल तक शतशः शासनादेश गढ़वाली भाषा में हैं। वस्तुत: गढ़वाली भाषा हिन्दी से भी पुरानी है, और वह वि०सं० १५१२ से शतियों पूर्व भी गढ़देश में व्यवहृत होती थी। दुर्भाग्य से, गढ़वाली के पुराने शासनादेश आज उपलब्ध नहीं हैं।

सातवाहनों के प्राकृत प्रेम की भाँति, पँवार शासकों का गढ़वाली भाषा-प्रेम प्रसिद्ध है। पँवारों ने संस्कृत साहित्य को कितना प्रोत्साहन दिया यह हम आगे तत्कालीन साहित्य' के प्रकरण में देखेंगे। परन्तु, पदाधिकारियों तथा प्रजा को प्रेषित उनके समस्त अभिलेख एवं शासनादेश गढ़वाली भाषा में ही हैं। 'गढ़वाली' तब राजभाषा थी। फलस्वरूप, पँवार-काल में गढ़वाली भाषा का एक मानक तथा परिनिष्ठित रूप बन चुका था जो उनके शासनादेशों में स्पष्ट दिखायी देता है। अल्प उदाहरण अवलोकनीय है।


"लिखितं चन्द्रवदनी का पंच पुज्यारौं कौ।"
"रवाजी का फौजदार सयाणा लेखवार सब माणसू प्रति।"
''पुजाराउँ ले देवता सपुज्य रषणो।"
"धर्म को निर्वाह करणो।" 
" दत्त हरण नी करणो । "
"दत्त हरण नी करणो।"
"सी गाँऊ सर्वकर अकरो कै लगाई दीन्यो।"
"तही भाती हमले हाट अकरो कयो। "
“ई ज्युली माँझ कैन षौ-षचोर नी करणो।"
गढ़वाल सन्तान ले ये धर्म माँझ अन्यथा नी करणी।"


इन ताम्रपत्रों एवं शासनादेशों में कुछ ऐसी उक्तियाँ भी हैं जो मुहावरों की में भाँति प्रतीत होती हैं और गढ़वाली भाषा की मौलिकता तथा उसकी प्रकृति को प्रकट करती हैं :

(१) " ई ज्युली लगदो गाड को छालो धुर को पालो खाणो कमौणो " ( अर्थात् , नीचे से ऊपर तक का समस्त क्षेत्र भोगें ) ।
 :

(२) " नाट की नटाली भुवै की औताली अकास को टिहर पाताल की निधि" ( अर्थात् , प्रदत्त भूमि पर का सब कुछ )।

(३) " तुम तौंका बुलाजा उंडा पठाञा पुंडा होजा ।" ( अर्थात् , उनके आदेश का पालन करें ) ।

दानपत्रों तथा शासनादेशों को ' भगापत्र ', ' भाषापत्र ', ' धर्मपत्र' तथा 'ताम्रपत्र ' कहा गया है, कभी मात्र ‘ पत्र ' भी (' पत्र लेषि दिन्यु ')। अभिलेखों में आये गढ़वाली के कुछ विशिष्ट शब्द भी अवलोकनीय हैं

'दत्त'   =  दान में प्रदत्त भूमि,
 'धर्म'   =   प्रदत्त दान
'विष्णुप्रीति'   =  गोरखा-काल का 'गूंठ',
'रोत'  =  जागीर
'अकरो'  =  कर-मुक्त
'मठ'  =   मन्दिर


वास्तव में, गढ़वाली भाषा के ये पँवार -अभिलेख गढ़ -संस्कृति को मुखर रूप से अभिव्यक्त करते हैं। इनके अध्ययन से दो निष्कर्ष निकलते हैं :-(१) सम्पूर्ण पँवार-काल में 'गढ़वाली भाषा' को राजभाषा का पद प्राप्त था। यद्यपि इस काल में संस्कृत में भी अभिलेख लिखे जाते रहे। (२) जिस प्रकार बौद्धों के आरम्भिक संस्कृत ग्रन्थों में प्राकृत का अधिक प्रभाव दिखायी देता है, उसी प्रकार प्रारम्भिक गढ़वाली अभिलेखों पर संस्कृत का प्रभाव सुस्पष्ट है। इनमें ' संस्कृत - मिश्रित गढ़वाली ' मिलती है। 

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