गोरखा। Gorkha in Hindi

गोरखाली प्रशासन

गोरखाली शासनादेशों में काजी, फौजदार, सरदार, दिठा (डिष्ठा), विचारि, बक्शी, इत्यादि पदाधिकारियों के नाम मिलते हैं। सूबेदारों के वही अधिकार थे जो पँवार राजाओं के दीवान के थे। परगनों का शासन 'फौजदारों' के हाथ में था जो सैनिक अधिकारी होते थे और दीवानी तथा छोटे फौजदारी वादों का निर्णय करते थे। युद्धों में रत रहने पर जब वे यह अधिकार अपने अधीनस्थ को दे देते थे तो वे 'विचारि' कहलाते थे।


राज्य-आय


आय का प्रमुख साधन भूमि-कर' (लगान) था। लगान का प्रबन्ध अच्छा नहीं था। कृषि पर लगान पर्याप्त बढ़ा दिया गया जो प्रायः भूमि की उपज से अधिक पड़ता था। परगनों के शासक परगनों की आय से सेना का वेतन देते थे। फ्रेजर के अनुसार, “गढ़-नरेश के अधीन 'दूण' की वार्षिक आय एक लक्ष थी, परन्तु गोरखाकाल में, बीस सहस्र रुपये से अधिक नहीं रह गयी थी।" दास-दासियों का विक्रय आय का एक साधन था। "जिसको अधिक शक्ति होती थी वह अवाध गरीबों को बेच सकता था।" माता-पिता स्वयं अपने बालकों का विक्रय करने के लिए बाध्य किये जाते थे। प्रत्यक्षदर्शी कै० रेपर (1808ई०) के अनुसार, "हरिद्वार में गोरखा-चौकी पर प्रतिवर्ष पहाड़ के आन्तरिक भागों से लाकर ये अभागे दास दस से डेढ़ सौ रुपयों में बेचे जाते थे जिनकी अवस्था तीन से लेकर तीस वर्ष की होती थी।"३ अनेक प्रकार की चुंगियाँ (सायर), अर्थदण्ड तथा कुर्की (असमानी-फरमानी) राज्य की आय के अन्य साधन थे।

                                   गोरखा शासन के अनुसार, भूमि-कर के अतिरिक्त, प्रजा पर थोपे गये अन्य) कर बड़े जबरदस्त थे जो बढ़कर २२,१४५ गोरखाली रुपये हो गया था :


गोरखा काल के कर

1 टाँडकर (करघों पर),

2 मिझाड़ी (बाडई या चर्मकार अछूतों पर),

3 सलामी (अधिकारियों को भेंट),

4 सौण्या-फागुण (पर्यों-उत्सवों पर भेंट),

5 खान एवं टकसाल कर,

6 अधनी कानूनगो कर,

7 सायर (सीमा एवं चुंगी कर),

8 कथ या क्वेरसाल कर,

9 कठबाँस कर

10 विवाह-कर,

11 घी-कर,

12 नाव-कर,

                            इनके अतिरिक्त त्यादि अनेकानेक कर थे। आवश्यकता होने पर प्रति परिवार 'मौ-कर' लगता था। "फौजी अफसरों के सुपुर्द मुल्क किया जाता था। वे स्वयं अपना वेतन वसूल कर लेते थे। वे कोई हिसाब सरकार को न देते थे, इसलिए उन्हें परवाह न थी कि मुल्क उजड़े या बरबाद हो जाए। वे मनमाने टैक्स वसूल करते थे। किसान एवं जमींदार दे न सकते थे। सदैव रूपया बकाये में रहता था। लोग पकड़े जाते थे और रोहिलखण्ड की बाजारों में बेचे जाते थे। तमाम गाँव उजड़ गये। बस्तियाँ जंगल बन गयीं।


न्याय-प्रशासन

न्याय-प्रशासन की निश्चित प्रणाली नहीं थी। अभियोग की विधि भी सरल होते हुए, अनिश्चित थी। अपराधों पर दोषी-निर्दोषी का निर्णय 'हरिवंश' को उठवाकर अथवा 'अग्नि-परीक्षा' (Ordeals) द्वारा होता था जिसे 'दिव्य' कहते थे। इस प्रकार के दिव्यों का उल्लेख किया है।

                                                           गोरख्याणी या गोरखा ' में प्राणदण्ड एक साधारण-सी बात थी। प्राणदण्ड किसी की हत्या करने पर ही नहीं, विश्वासघात करने पर, गाय को जानबूझकर मारने पर, शूद्र द्वारा राजपूत-ब्राह्मण के हुक्के को छूने पर अथवा अन्य जातीय प्रथाओं को भङ्ग करने पर दे दिया जाता था। गम्भीर अपराध पर हाथ वा नाक काटी जाती थी। उच्च वर्ग में व्यभिचार होने पर पुरुष को प्राणदण्ड तथा स्त्री की नाक काटी जाती थी। कारागार का दण्ड प्राप्त अपराधी 'कैनी' (राज-सेवक) हो जाते थे।..... गोरख्याणी में अनेक कार्यों के विरुद्ध प्रतिषेध आज्ञाएँ (Prohibitions) जारी की गयी थीं जिनके उल्लंघन पर अपरिहार्य रूप से अर्थदण्ड वसूल होता था। यथा, गढ़वाल में कोई स्त्री घर की छत पर नहीं चढ़ सकती थी।


गोरखा-प्रशासन

गोरखा-प्रशासन पर एक दृष्टि : गोरखा-प्रशासन के व्यावहारिक पक्ष से अनभिज्ञ, कुछ समीक्षक गोरखों को सुयोग्य प्रशासक बताते थेकि श्री ब०प्र० सक्सेना का कथन है कि कुमाऊँ में गोरखा शासन अपने उद्धारक लक्षणों से रहित नहीं है। उन्होंने दलबन्दी में डूबे राज्य में पुनः शान्ति लौटायी और उसके प्रशासन में सच्ची रुचि ली। जोगामल्ल की सूबेदारी में राजस्व प्रशासन के क्षेत्र में अनेक सुधार हुए, तथा नागरिक प्रशासन भी पूरी तरह से ठीक किया गया। सूबेदारों का निरन्तर बदलाव होते हुए, जिनमें से कुछ नरसिंह जैसे बहुत क्रूर तथा अत्याचारी थे, राज्य समृद्ध होने लगा। यह भी कहा गया है कि, पूर्व शासकों के काल में बहुसंख्यक करों की तुलना में गोरखों ने केवल दस प्रकार के कर आरोपित किये। ऐसे समीक्षकों को ज्ञात होना चाहिए कि पूर्व शासकों के काल में कराधान के कारण प्रजा को कभी दास नहीं बनना पड़ा। जबकि गोरखा शासन में, समय पर राज्य-कर - चुका पाने के कारण अथवा क्षुद्र अपराधों पर भी पकड़े जाने पर प्रजा दास बनाकर कौड़ियों के भाव बेची गयी। इस असह्य कर-भार के सम्बन्ध में समकालीन कवि गुमानी ने लिखा था


दिन दिन खजाना का भार का बोकनाले।

शिव शिव चुलि में बाल नै एक कैका।।

किसान के न बीज बयल पास नहीं कौड़ी।

भाजे सभी मधेस कौं रैयत भई कनौड़ी।।

रैयत के घर न पैसा कंगाल सब भये।

ताँबा रहा न काँसा माटी के चढ़ गये।।

टुकड़े का पड़ा साँसा मधेस बड़ गये।

कपड़ा रहा न तन मैं, भंगेले भी सड़ गये।।.

.कुमाऊँ से भी, “उच्चतर वर्गों में से अनेक लोग मैदान को भाग गये थे तथा बाकीदारों के परिवार रोहिलखण्ड में दास बनाकर बेचे गये।


                               गोरखा शासनकाल में, ऊपर से नीचे तक सभी पदाधिकारी नरशाह जैसे अन्यायी थे। नेपाल सरकार बहुत दूर थी। जिससे निचले फौजी शासकों को मनमौजी तथा अत्याचार का अवसर मिल गया। वे कभी प्रजा का सहयोग प्राप्त नहीं कर सके। फलस्वरूप, गोरख्याणी के विरुद्ध सतत आन्तरिक विरोध बना रहा।


गढ़वाल में यह आन्तरिक विरोध आरम्भ से ही अधिक प्रकट होता रहा। उदाहरण के लिए, अंग्रेज-गोरखा युद्ध-काल में जौनसारियों ने गोरखा खाद्यपूर्ति-सामग्री को ही नहीं काट दिया था अपितु बलभद्रसिंह के जौण्टगढ़ से जेठक लौटने के समय उसके लिए सङ्कट पैदा किया और पश्चिमी टोन्स के मार्ग में तो उससे युद्ध भी किया। जी०आर०सी० विलियम्स (पैरा 265) ने इसे एक अपवाद माना। परन्तु यह अकेला अपवाद नहीं था। इससे बहुत पूर्व, कहा जाता है कि जोशीमठ के समीप बड़गाँव में मतकोट के स्थानीय प्रमुख ने अपने आदमियों की सहायता से गोरखा आक्रमणकारी एक दल से भीषण प्रतिरोध किया था और उन्हें चतुराई से एक कोठरी में बन्दकर वध कर डाला था। वह तहखाना अभी तक 'गुरख्या उबरा' कहलाता था। द्वितलीय इस जीर्ण भवन की ऊपरी मंजिल के कपाटों पर गोलियों के चिह्न स्पष्ट दिखायी देते थे। एक गढ़वाल में ऐसे अनेक प्रतिरोध निरन्तर होते रहे।


गोरखा आधिपत्य के अन्तिम दिनों में, गढ़वालियों ने गोरखों का क्रूरतापूर्वक प्रतिशोध लिया, यद्यपि यह गोरखों की अपेक्षा नगण्य था। अंग्रेज-गोरखा युद्ध से पूर्व, “बहादुर गढ़वाली भी कुछ किले खाली करवा चुके थे।" हरिकृष्ण रतूड़ी भी लिखते हैं :-"लोहबा का किला गढ़वाली पहले ही खाली करवा चुके थे। यद्यपि गढ़वाल पर कुछ समय तक गोरखों का कब्जा रहा, पर गढ़वाली निरन्तर उन्हें निकालने की चेष्टा करते रहे और मौका मिलने पर उनके अत्याचारों का बदला उन्हें देते रहे।" दूसरी ओर, यद्यपि कुमाउँनियों ने गोरखों का कम ही विरोध किया परन्तु वे भी सताये गये एवं उत्पीड़ित किये गये थे। (जबकि) गढ़वाल तब इस तरह पर शासित होता था कि मानो उसके शासकों का एकमात्र उद्देश्य उसे आबादी की जगह जंगल बनाने का था। परन्तु कुमाऊँ में यह बात नहीं थी।" कि "कुमयों ने गोरखाली-राज के विरुद्ध राजद्रोह नहीं किया।"

                                            बरनी ने एक बार सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक को मूल्यवान् सुझाव दिया था कि,“राजा का सबसे बड़ा सङ्कट यही है कि लोगों में शासक के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाये और किसी भी वर्ग के लोगों में उसके प्रति विश्वास नहीं रहे।" गोरखा-शासन पर यह सङ्कट उसके पूरे काल तक छाया रहा। इसके विपरीत, लोग कम्पनी शासन में अपने स्वर्णिम स्वप्नों को देख रहे थे। क्योंकि अत्याचारी गोरखाली शासन की परिणति उसके अति शीघ्र अन्त में होने वाली थी। अंग्रेज-गोरखा युद्ध में, उनके अन्याय से लोग उनकी सहायता करना छोड़ अंग्रेजों की सहायता करते थे

गोरखों का अन्यायपूर्ण अन्धेरराज गढ़-कुमाऊँ में 'गोरख्याणी' कहा जाता है। यह अल्पकालीन रहा, परन्तु इसमें अपमानपूर्वक पिसने के कारण, यह नादिरशाही से भी बढ़कर था। देशी-विदेशी लेखकों के निम्नलिखित विचारों से इस अन्यायपूर्ण शासन की पुष्टि होती है

"गोरखा-शासन द्वारा गढ़वाल में जो ध्वंसलीला मची है, उसके जीवित प्रमाण हैं, पड़ती पड़े खेत, ध्वस्त जनशून्य झोपड़े जो यहाँ चारों ओर दिखायी देते हैं। मन्दिरों के खेत ही केवल ऐसे हैं जो भली-भाँति जोते जाते हैं। गोरखालियों ने लोहदण्ड से गढ़वाल का शासन किया, जिससे यह देश सब प्रकार से बहुत सोचनीय स्थिति में पहुँच गया। यहाँ के गाँव जनशून्य हो गये, कृषि नष्ट हो गयी और जनसंख्या अप्रत्याशित रूप से कम हो गयी। कहते हैं कि दो लाख (२,००,०००) गढ़वाली दासों के रूप में बेचे गये।... इससे शासकों के प्रति लोगों में घृणा दृढ़ हो गयी थी। "धनिकों को लूटना, सुन्दर स्त्री का पातिव्रतधर्म नष्ट करना गोरखों का स्वाभाविक काम था, जिससे उनको देखते ही स्त्रियाँ जंगलों में अथवा घरों में छिप जाया करती थीं।.... गढ़वाल की प्रजा उनके शासन से कभी सन्तुष्ट नहीं रही। उसके मन पर सदा यह विचार बना ही रहा कि कब हम इन दुष्टों को अपने यहाँ से निकालें।    

devbhoomilive .inहिन्दू धार्मिक कृत्यों के प्रति उनकी रुचि से ही उनकी प्रशंसा की जा सकती है। उन्होंने प्राचीन देवालयों की परम्पराएँ स्थापित रखीं, उनका जीर्णोद्धार किया, उन्हें प्रदत्त पूर्वकालीन अग्रहार ग्राम (जिसे वे 'गूंठ' कहते थे) यथावत् रखे तथा नयी अग्रहार भूमि भी दान में दी। उनकै शासनकाल में ही वरदाचार्य द्वारा राघवालय-छत्र का नवीनीकरण (देवप्रयाग रघुनाथमन्दिर छत्री-ताम्रलेख, संस्कृत, संवत् 1864 चैत्र) तथा किसी के द्वारा कंसमर्दिनीमन्दिर श्रीनगर का जीर्णोद्धार (तत्मन्दिर महत्त्वपूर्ण व नेपाल से बक्शी दशरथ खत्री तथा काजी बहादुर भण्डारी को गढ़वाल में 'भूमि-प्रबन्ध' के लिए भेजा गया था


गोरखा-अंग्रेज युद्ध :

एक ओर अँग्रेज, अपनी सीमा पर पूर्णिया, तिरहुत, सारन, गोरखपुर एवं बरेली के जनपदों तथा यमुना-सतलज के मध्यवर्ती संरक्षित क्षेत्र में गोरखों का अनुचित अग्रधर्षण बता रहे थे। दूसरी ओर, अमरसिंह थापा ने इस आरोप का खण्डन करते हुए कहा था कि, “समस्त तराई पर नेपाल का अधिकार है।" वस्तुतः, गोरखा-अंग्रेज युद्ध निकट आ चुकी दो शक्तियों के विस्तारवाद का सीधा परिणाम था।


"उधर दक्षिण से अंग्रेज भी बढ़ते-बढ़ते हिमालय की जड़ में पहुँच गये थे, और उनकी भूख तृप्त होने वाली नहीं थी। ऐसी अवस्था में, अंग्रेजों को बहाना भर चाहिए था।"ब्रिटिश सरकार की एक घोषणा में, युद्ध का तात्कालिक कारण शिवराजपुर तथा भुट्टावाला पर गोरखों का बलपवूक अधिकार बताया गया।

9 नवम्बर, 1814 को औपचारिक युद्ध-घोषणा से पूर्व ही, अंग्रेज सेनाओं के चार डिवीजन मैदान में आ चुके थेमेरठ डिवीजन को मेजर-जनरल गिलेस्पी के नेतृत्व में 3513 सैनिकों के साथ दूण पर अधिकार का कार्य सौंपा गया। लुधियाना डिवीजन को मेजर-जनरल अॅक्टरलोनी के नेतृत्व में 8000 सैनिकों के साथ पश्चिमी छोर पर सतलज-यमुना के मध्य अमरसिंह थापा के विरुद्ध चढ़ाई करने के लिए भेजा गया। दूण-अभियान के लिए फ्रेजर का वृतान्त प्रधान आधार है। गिलेस्पी की सेनाएँ ले०-कर्नल कारपेण्टर तथा ले०-कर्नल मौबी के नेतृत्व में शिवालिक के तिमली तथा मोहन घाटों को पारकर 24 अक्टूबर को देहरादून में आकर मिलीं। सहायक श्री फेजर को एतदर्थ नियुक्त किया। वह अक्टूबर मेंं ही युवराज से हरिद्वार मेंं मिला नालापानी युद्ध मे गोरखा पराजय हुए
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कुमाऊँ-गढ़वाल पर ब्रिटिश अधिकार :


1815 ई० के जनवरी मास के दौरान कुमाऊँ पर आक्रमण की तैयारी प्रारम्भ हो गयी थी। हियरसी के शब्दों में कुमाऊँ का “Earl Warwick” हर्षदेव जोशी
devbhoomilive .inअब अंग्रेजों को सहायता देने के लिए तैयार था। उसके पत्राचार से महरा, फड़तियाल, तड़ागी तथा अन्य ने कै० हियरसी की सेना का साथ दिया। हर्षदेव स्वयं कम्पनी की सेना के साथ अलमोड़ा पहुँचा। हरकदेव जोशी एक प्रधान साधन था जिसने इस देश के लोगों को हमारा साथ देने के लिए प्रेरित किया था। 23 अप्रैल को गणनाथ-डाँडा के युद्ध में सेनापति हस्तिदल चौतरिया मारा गया। वह नेपाल के तत्कालीन राजा का चाचा था। 27 अप्रैल को कुमाऊँ के शासक बमशाह ने आत्मसमर्पण कर दिया। इसी दिन गढ़वाल-कुमाऊँ को खाली करने के लिए समझौते पर ई० गार्डनर, बमशाह, चामु भण्डारी तथा जसमर्दन थापा के हस्ताक्षर हुए। अलमोड़ा-पतन के चार दिन पूर्व, 22 अप्रैल को गढ़वाली गोरखों की प्रधान चौकी 'लोहबागढ़' को खाली करवा चुके थे।
उधर 'मलाँवदुर्ग' में सेनापति अमरसिंह की पराजय के साथ युद्ध समाप्त हुआ। गोरखा गवर्नर काजी अमरसिंह तथा मे०-जनरल अॅक्टरलोनी के मध्य 15 मई 1815 को 'मलाँवगढ़-सन्धि' द्वारा मलाँव तथा जेठक दुर्गों के साथ काली से सतलज के मध्य समस्त नेपाली दुर्गों को भी खाली करवाया गया। अमरसिंह ने गढ़वाल के दुर्गों को अंग्रेजों को सौंपने के लिए काजी बख्तावरसिंह को लिख दिया। परिणामस्वरूप, गोरखा सेनाएँ काली पार हो गयीं तथा सम्पूर्ण गढ़वाल-कुमाऊँ अंग्रेजों के अधीन हो गया। इस अधिकार की पुष्टि 4 मार्च 1816 की 'सिगोली-सन्धि' से की गयी।
3 मई 1815 को गवर्नर-जनरल का ई० गार्डनर को 'कुमाऊँ कमिश्नर' तथा 'एजण्ट गवर्नर-जनरल' का पदभार ग्रहण करने का आदेश हुआ। 8 को जी०डबल्यू० ट्रेल को उसका सहायक नियुक्त किया गया। जुलाई






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