
साल 1884 कुमाऊ का प्रवेश द्वार कहे जाने वाला काठगोदाम अंग्रेज अधिकारियों और स्थानीय लोगों की भीड़ से खचाखच भरा हुआ था। दरअसल काठगोदाम में नई नई रेलवे लाइन बिछाई गई थी और एक रेलवे स्टेशन बनकर तैयार हुआ था। पहाड़ और बाबर की जनता में पहली बार रेल गाड़ी देखने को लेकर जबरदस्त कोतुहल था। बाबर के जंगलों से धुआं छोड़ते और चींटी मारते हुए लोहे का 1 इंच अपने पीछे कई लोहे लोहे के डिब्बे को खींचता हुआ चला रहा था कि रेलगाड़ी काठगोदाम पहुंची तो लोगों के बीच भगदड़ मच गई। लोग इस विशालकाय मशीन को देखकर लोग भयभीत होने लगे असल में पहली बार रेल गाड़ी देख रहे हैं। लोगों को इसका अंदाजा नहीं था कि रेल कितनी बड़ी होती है। ये दृश्य है। 24 अप्रैल 1884 का जब काठगोदाम में लखनऊ से पहली बार ट्रेन पहुंची थीनमस्कार। नमस्कार में हूं सागर और आज आपको ले लूंगी। इतिहास की एक दिलचस्प कालखंड में और बताऊंगी कि जब भारत के उत्तरी हिस्सों में पहली बार रेल चली तो हुआ यूं था। उत्तराखंड में रेल की आमद कब हुई यह जाने से पहले हम यह जान लेते हैं कि देश की सबसे पहली ट्रेन कब कहां से और कहां तक चली थी। भारत में रेलवे का पहला सफर 16 अप्रैल 1853 को तब हुआ था जब मुंबई से थाने के बीच पहली पैसेंजर ट्रेन चली थी। मुंबई के बोरीबंदर से चलने वाली ट्रेन 33.8 किलोमीटर की दूरी तय करती थी। यह भारत की पहली ट्रेन नहीं थी बल्कि पूरे भारतीय महाद्वीप की सबसे पहली यात्री ट्रेन थी। इस ट्रेन में 14 यात्री डिब्बे थे और इसके पहले सफर में 400 लोगों ने यात्रा की थी। लेकिन भारत में चलने वाली पहली यात्री यानी पैसेंजर ट्रेन थी। जहां तक पहले पहल ट्रेन चलने का सवाल है तो इससे पहले भी। कुछ ट्रेन भारत में माल ढुलाई के लिए चलने लगी थी।ई की आपको जानकर आश्चर्य होगा कि अपने उत्तराखंड में भी एक ऐसे ही ट्रेन थी जो मुंबई के यात्री ट्रेन से 2 साल पहले ही चलने लगी थी। एक मालगाड़ी थी जो 1951 से ही रुड़की और पिरान कलियर के बीच चली थी इसका भी रोचक किसा है। असल में साल 1837 के आसपास भारत के उत्तर पश्चिमी इलाकों में भारी सूखा पड़ा। ईस्ट इंडिया कंपनी ने इसका समाधान निकालते हुए कम नहर बनाने की योजना बनाई। योजना थी कि किस नहर के जरिए हरिद्वार के पानी को पश्चिम उत्तर प्रदेश के विशाल खेतों तक पहुंचाया जाए। इसे गंग नहर को बनाने के लिए साल 1851 में रुड़की से कलियर के बीच 10 किलोमीटर लंबी रेल लाइन बिछाई गई और करीब 9 महीनों तक उससे मिट्टी की ढुलाई का काम किया गया। दिलचस्प है कि आज से 200 साल पहले जो इंजन यहां चला था, आज भी रुड़की में मौजूद है और बड़ी बात यह है कि आज भी उसे हर शनिवार को स्टार्ट किया जाता है कि में 1851 में माल गाड़ी चलने और 1853 मुंबई से थाने के बीच पहली यात्री ट्रेन चलने के लगभग 30 साल बाद।काठगोदाम में पहली बार पैसेंजर ट्रेन पहुंची। लखनऊ से काठगोदाम के लिए चलने वाली ट्रेन का नाम अवध तिरहुत एक्सप्रेस था। सुबह 4:00 बजे लखनऊ से चलकर दोपहर 3:00 बजे काठगोदाम स्टेशन पहुंची।
यह तकरीबन 50 किलोमीटर प्रति घंटा की रफ्तार से चलने वाली एक मेल एक्सप्रेस थी जो कि स्टीम पावर पर चलती थी और रेल लाइन या पटरिया मीटर गई थी। इस कहानी में आगे बढ़ने से पहले यह समझ लेते हैं कि आखिर वे गेट क्या बला है। आमतौर पर भारत में चार प्रकार की रेलवे लाइन होती है। पहली मीटर गेज लखनऊ से काठगोदाम भी बिछाई गई थी। जैसे किसके नाम से ही पता चल रहा है। इसमें ट्रैक की चौड़ाई 1 मीटर की होती है। दूसरे ब्रॉडगेज चौकी मुंबई से थाने के बीच चलने वाली रेल लाइन में थी। इसमें पार्टियों की दोनों लाइन के बीच की दूरी 5.6 फीट होती थी। भारत में चलने वाली अधिकांश चलने वाली किसी ब्रॉडगेज पर चलती है, लेकिन मेट्रो इसका अपवाद है क्योंकि स्टैंडर्ड गेट पर चलती है। चौड़ाई 4.8 इंच होती है। महानगरों में चलने वाली मेट्रो और मोनू रेल। स्टैंडर्ड गेज पर चलती है और कोलकाता ट्ट्रिप तो इसि पर संचालित हो रही है। इन तीनों के अलावा एक होता है। नैरोगेज। इसमें पटरियों के बीच की दूरी सिर्फ 2 फीट होती है। आपने दार्जिलिंग टॉय ट्रेन कालका शिमला ट्रेन पर देखी है तो वह नेहरू गेट पर ही चलती है। रेलवे गेज की तकनीकी जानकारी से वापस लौटते हैं।
काठगोदाम ट्रेन पहुंचने की कहानी पर हल्द्वानी स्मृतियों के झरोखे से किताब लिखने वाले लेखक स्वर्गीय आनंद बल्लभ उपरेती लिखते हैं कि कुमाऊ के प्रवेश द्वार के रूप में मशहूर काठगोदाम बस समय चौहान पाठक के नाम से जाना जाता था। उस समय टीम किंग के नाम से मशहूर दान सिह और दान सिह मालदार ने यहां कई लकड़ियों के गोदाम बनाए और बड़ा कारोबार किया। पहाड़ से इमारत की लकड़ी लाने के लिए परिवहन का कोई साधन नहीं होता था। लिहाजा लकड़ियों को नदियों के सारे काठगोदाम पहुंचाया जाता था। यहां से पूरे भारत में लकड़ियों को बाजार में तथा इतिहासकारों के अनुसार काठगोदाम ट्रेन लाने का मकसद भी यही था कि वहां से लकड़ियों की सप्लाई बढ़ाई जा सके। इस क्षेत्र से निकाली जा रही लकड़ियों की सप्लाई के लिए जंगलात विभाग में 1920 में मंदसौर ट्रेन और ट्रेन का संचालन किया। 2 रूटों पर चलती थी। एक रूट लाल कुआं हो रही फैला और चोरगलिया का 21किलोमीटर का था और दूसरा रूट होरई हंसपुर जोलासाल का करीब 20 किलोमीटर लंबा काठगोदाम से ट्रेन का सफर शुरू होने के 16 साल बाद यानी सन उन्नीस सौ में हरिद्वार होते हुए ट्रेन देहरादून तक भी पहुंच गए। लेकिन जहां काठगोदाम में मीटर गेज लाइन थी वहीं देहरादून रेल परियोजना ब्रॉड गेज लाइन के साथ शुरू हुई मसूरी रेल लाइन परियोजना पर काम चला लेकिन वह पूरा ना हो सका। उधर काठगोदाम में रेल बहुत पहले पहुंच गई थी लेकिन उसका आधुनिक करण करने में एक सदी लग गई। 1994 में काठगोदाम रेल लाइन मीटर गेज रही भाप वाले इंजन तो यहां साल 2011 तक आते-आते ही सही 1994 काठगोदाम रेल लाइन। ब्रॉडगेज किया गया इसके बाद यहां बड़ी ट्रेन भी आने लगी है एक दिलचस्प तथ्य यह भी कि काठगोदाम रेलवे स्टेशन को सबसे साफ सुथरा रहने का अवार्ड भी मिल चुका है रेलवे स्टेशन को 19वीं शब्दी खत्म होने से पहले अंग्रेज चौहान पाटा यानी काठगोदाम तक रेल पहुंचा चुके थे। अब उनकी नजर पहाड़ों पर थी। इसके लिए उन्होंने 1905 टनकपुर बागेश्वर रेल लाइन के अलावा चौखुटिया जोलजीवी रेल लाइन का सर्वेक्षण का काम कराया साल 1939 तक पूरा भी हो गया था। लेकिन द्वितीय विश्व युद्ध के कारण अंग्रेज सरकार का ध्यान से हट गया। इसके कुछ ही सालों बाद देश आजाद हो गया और स्वतंत्र भारत की सरकारों के लिए तमाम अन्य प्राथमिकताएं थी लिहाजा इस दिशा में कभी भी काम ना हो सका हालांकि अब उत्तराखंड में रेलवे लाइन का विकास हो रहा है ऋषिकेश कर्ण प्रयाग रेलवे का कार्य लगभग आधा हो चुका है तय हो चुका है। डोरी वाला गंगोत्री रिवर प्रोजेक्ट की डीपीआर तैयार हो चुकी है। कहा जाता है कि कर्णप्रयाग रेल पहुंचेगी तो उत्तराखंड में पहली ट्रेन होगी जो किसी । सिमान जिले तक पहुंचेगी। हालांकि दिलचस्प तथ्य यह भी है कि उत्तराखंड के दूसरे सीमा जिले में पहले भी एक ट्रेन चल चुकी है। आज से लगभग 30 साल पहले 90 के दशक में उत्तरकाशी में जब मनेरी भाली बांध परियोजना का निर्माण किया जा रहा था उसे समय माल ढुलाई के लिए लगभग 10 किलोमीटर लंबी नैरो गेज रेलवे ट्रैक वहां पर बिछाया गया था ।जिस पर रेल दौड़ा करती थी इस बान्ध का निर्माण पूरा होने के साथ ही यह भी बंद कर दी गई। आपको कैसा लगा हमें कमेंट करके जरूर बताएं। अगर आप कोई कार्यक्रम पसंद आया तो इसे शेयर करने के साथ ही देव भूमि उत्तराखण्ड से जुड़े रहे। अब हमें आप हमें ईमेल (sagar.baneshi.almora@gmail.com , devbhoomilive.in@gmail.com )की सहायता से भी तथ्य एवं इतिहासवह उनकी जानकारी बता सकते हैं और डिटेल के जरिए भी सहयोग कर सकते हैं ताकि हम लाते रहे पहाड़ों से जुड़ी हर जिज्ञासा की खुराक www.devbhoomilive.in मे ।
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