14 जनवरी 1921 मकर संक्रांति का दिन था। दोपहर के करीब 1:30 बजे थे। कुमाऊँ स्थित बागेश्वर में सरयू नदी के किनारे हजारों लोग उत्तरायणी मेले में शरीक होने पहुंचे और गोमती नदी के संगम पर बसी है। जगह स्तरीय बगड़ के नाम से भी जानी जाती है। इसी जगह कुमाऊं परिषद के कुछ नेता करीब 10000 लोगों की एक विशाल जनसभा को संबोधित करें। कुमाऊं परिषद के नेता कुछ दिन पहले अपनी 50 से ज्यादा कार्यकर्ताओं के साथ बजे तक पहुंचे। इनमें बद्री दत्त पांडे हर गोविंद पंत और चिरंजीलाल था। जैसे नाम शामिल थे। इस बार के विरोध में हो रही थी जहां कई नेता भाषण देते हुए खिलाफ हुंकार भर रहे थे। जब पांडे की बारी आई तो उन्होंने जोशीले अंदाज में बागनाथ मंदिर की शपथ लेने का आह्वान किया, लेकिन जल्द ही सभी लोगों ने सामूहिक स्वर में शपथ लेते हुए कहा, हम कुली नहीं बनेंगे। इसके साथ ही मालगुजार उन्हें अपने अपने गांव के कुली रजिस्टर को सरयू नदी में फेंकना शुरू कर दिया। देखते ही देखते सारे रजिस्टर सरयू नदी के प्रवाह में बहा दिए गए।
इस घटना को देखकर अंग्रेज अधिकारियों के होश फाख्ता हो गए। उन्होंने जनता के इस विद्रोह को काबू करने की कोशिश की मगर हजारों लोगों के इस आक्रामक रूख को देखते हुए अंग्रेज सफल रहे।
इसी ऐतिहासिक घटना के साथ उत्तराखंड में व्याप्त साल पुरानी प्रथा का अंत हुआ। उत्तराखंड के इतिहास के नाम से जाना जाता है। नमस्कार मैं सागर बणेशी लिए लेकर आया हूं। उत्तराखंड में आंदोलनों के समृद्ध इतिहास को समर्पित देव भूमि उत्तराखण्ड की नई सीरीज प्रतिरोध और आजादी से पहले का था। 19 वीं सदी का दूसरा दशक साल 1815 अंग्रेजों ने गौरव को हराकर उत्तराखंड में टिहरी रियासत को छोड़ बाकी हिस्से पर अपना अधिकार जमा लिया था। उन्होंने अपनी सुविधा अनुसार इस क्षेत्र को प्रशासनिक इकाइयों में बांटना ही शुरु 440 में कुमाऊं कमिश्नर को दो भागों में विभाजित कर दिया जाएगा। कहीं और दूसरी और बाकी हिस्से पर अंग्रेजों का पहाड़ की जनता दोनों की शासन में अनेक समस्याओं से त्रस्त सरकारी नीतियों का बोझ जनता पर लाद दिया गया और पुलिस प्रशासन से भी पूर्व से चला रहा। विरोध का कोई मजबूत सामने नहीं आ रहा होगा। प्रभु सेवा के नाम पर काट देना ही पड़ता क्योंकि जो कुछ घटनाएं सामने आई थी, उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया। अत्याचारों को चाहते रहना ही समझ गया था, मगर बुराई का अंत जरूर होता है। शुरुआत में जब अंग्रेज यहां आए तो सड़कों और पक्के रास्तों का हाउस गांव में भी अंग्रेज अधिकारियों के प्रशासनिक कार्यालय में चढ़ाई और ढोल वाले उबर खाबर पथरीले लंबे लंबे रास्ते से पैदल आना जाना उनके लिए काफी मुश्किल था। इसके अलावा 1828 उत्तराखंड का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश क्राउन बंदोबस्त की प्रक्रिया शुरू हुई। जनता के जंगलों को लेकर उनके अधिकार सीमित कर दिए गए। रेलवे लाइन एवं समिति इन तमाम सुविधाओं का हल अंग्रेजों ने कुली बेगार प्रथा के रुपए निकालने से पहले काम करवा किस काम का नहीं दिया जाता था? उतार के तहत कुलियों को उनके श्रम की तुलना में बेहद कम मजदूरी दी जाती है वहीं पर दास प्रथा के अंतर्गत अधिकारी उनकी कोई रिश्तेदार रहते तो वहां के स्थानीय को उन्हें मुफ्त में खाने-पीने को कहा जाएगा। अधिकारियों एवं कर्मचारियों के लिए। ब्रिटिश पर्यटकों को भी मिल सकेगा। मासूम पहाड़ियों के साथ इस तरह का अपमानजनक व्यवहार बेहद निंदनीय था। कई वर्षों तक यह सब चलता रहा। मगर धीरे-धीरे लोगों के खून में उबाल आने पर और दो अन्य प्रतिनिधि शामिल एक कुली उतार और दूसरी कोई रिश्तेदार तो वहां के स्थानीय को उन्हें मुफ्त में राशन खाने-पीने के सामान इंजन और कई बार कहने की व्यवस्था भी उपलब्ध कराने के प्रधान और पटवारियों की यह जिम्मेदारी होती थी कि कुछ दिनों के लिए निश्चित कुलियों की व्यवस्था अंग्रेजों के लिए उपलब्ध कराई जाए के लिए बकायदा एक रजिस्टर होता था। उसे पूरी रजिस्टर कहा जाता है को खत्म करने के कई बार प्रयास भी हुए। 18 सोलह में जल कुमाऊं कमिश्नर नियुक्त हुए। उन्होंने भी कत्यूरी चंदू और गुफाओं के शासन काल से चली आ रही इस प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की। इसके लिए प्रस्ताव रखा। उसमें का निर्माता की मदद से अंग्रेज अधिकारियों का सामान और स्थानीय ग्रामीणों की मुश्किलें कुछ कम हो सकती है। ग्रामीणों से पुलिस को दी जाने लगी। 1807 खत्म होते-होते को और भी मजबूत स्वरूप में लगातार 5870 में होने उत्तराखंड की कानून व्यवस्था की समीक्षा के लिए एक आयुक्त की नियुक्ति की उनका नाम था कि वे अपनी रिपोर्ट में उन्होंने उत्तराखंड यानी ब्रिटिश कुमाऊं और गढ़वाल को मीटिंग क्षेत्र से हटाने की मांग की।
इसी ऐतिहासिक घटना के साथ उत्तराखंड में व्याप्त साल पुरानी प्रथा का अंत हुआ। उत्तराखंड के इतिहास के नाम से जाना जाता है। नमस्कार मैं सागर बणेशी लिए लेकर आया हूं। उत्तराखंड में आंदोलनों के समृद्ध इतिहास को समर्पित देव भूमि उत्तराखण्ड की नई सीरीज प्रतिरोध और आजादी से पहले का था। 19 वीं सदी का दूसरा दशक साल 1815 अंग्रेजों ने गौरव को हराकर उत्तराखंड में टिहरी रियासत को छोड़ बाकी हिस्से पर अपना अधिकार जमा लिया था। उन्होंने अपनी सुविधा अनुसार इस क्षेत्र को प्रशासनिक इकाइयों में बांटना ही शुरु 440 में कुमाऊं कमिश्नर को दो भागों में विभाजित कर दिया जाएगा। कहीं और दूसरी और बाकी हिस्से पर अंग्रेजों का पहाड़ की जनता दोनों की शासन में अनेक समस्याओं से त्रस्त सरकारी नीतियों का बोझ जनता पर लाद दिया गया और पुलिस प्रशासन से भी पूर्व से चला रहा। विरोध का कोई मजबूत सामने नहीं आ रहा होगा। प्रभु सेवा के नाम पर काट देना ही पड़ता क्योंकि जो कुछ घटनाएं सामने आई थी, उन्हें गंभीरता से नहीं लिया गया। अत्याचारों को चाहते रहना ही समझ गया था, मगर बुराई का अंत जरूर होता है। शुरुआत में जब अंग्रेज यहां आए तो सड़कों और पक्के रास्तों का हाउस गांव में भी अंग्रेज अधिकारियों के प्रशासनिक कार्यालय में चढ़ाई और ढोल वाले उबर खाबर पथरीले लंबे लंबे रास्ते से पैदल आना जाना उनके लिए काफी मुश्किल था। इसके अलावा 1828 उत्तराखंड का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी से ब्रिटिश क्राउन बंदोबस्त की प्रक्रिया शुरू हुई। जनता के जंगलों को लेकर उनके अधिकार सीमित कर दिए गए। रेलवे लाइन एवं समिति इन तमाम सुविधाओं का हल अंग्रेजों ने कुली बेगार प्रथा के रुपए निकालने से पहले काम करवा किस काम का नहीं दिया जाता था? उतार के तहत कुलियों को उनके श्रम की तुलना में बेहद कम मजदूरी दी जाती है वहीं पर दास प्रथा के अंतर्गत अधिकारी उनकी कोई रिश्तेदार रहते तो वहां के स्थानीय को उन्हें मुफ्त में खाने-पीने को कहा जाएगा। अधिकारियों एवं कर्मचारियों के लिए। ब्रिटिश पर्यटकों को भी मिल सकेगा। मासूम पहाड़ियों के साथ इस तरह का अपमानजनक व्यवहार बेहद निंदनीय था। कई वर्षों तक यह सब चलता रहा। मगर धीरे-धीरे लोगों के खून में उबाल आने पर और दो अन्य प्रतिनिधि शामिल एक कुली उतार और दूसरी कोई रिश्तेदार तो वहां के स्थानीय को उन्हें मुफ्त में राशन खाने-पीने के सामान इंजन और कई बार कहने की व्यवस्था भी उपलब्ध कराने के प्रधान और पटवारियों की यह जिम्मेदारी होती थी कि कुछ दिनों के लिए निश्चित कुलियों की व्यवस्था अंग्रेजों के लिए उपलब्ध कराई जाए के लिए बकायदा एक रजिस्टर होता था। उसे पूरी रजिस्टर कहा जाता है को खत्म करने के कई बार प्रयास भी हुए। 18 सोलह में जल कुमाऊं कमिश्नर नियुक्त हुए। उन्होंने भी कत्यूरी चंदू और गुफाओं के शासन काल से चली आ रही इस प्रथा को समाप्त करने की कोशिश की। इसके लिए प्रस्ताव रखा। उसमें का निर्माता की मदद से अंग्रेज अधिकारियों का सामान और स्थानीय ग्रामीणों की मुश्किलें कुछ कम हो सकती है। ग्रामीणों से पुलिस को दी जाने लगी। 1807 खत्म होते-होते को और भी मजबूत स्वरूप में लगातार 5870 में होने उत्तराखंड की कानून व्यवस्था की समीक्षा के लिए एक आयुक्त की नियुक्ति की उनका नाम था कि वे अपनी रिपोर्ट में उन्होंने उत्तराखंड यानी ब्रिटिश कुमाऊं और गढ़वाल को मीटिंग क्षेत्र से हटाने की मांग की।
1274 में उत्तराखंड में सहयोग डिस्ट्रिक्ट एक्ट पारित कर दिया। इस एक्ट के तहत तत्कालीन कुमाऊं कमिश्नर हेनरी राम जी के कार्यकाल में यहां कुली बेगार को कानूनी मान्यता दे दी गई। कुली कुली उतार और कुली बर्दाश्त के बारे में ब्रिटिश सरकार ने रेगुलेशन ऑफ द गवर्नमेंट ऑफ फोर्ट विलियम खंडू में लिखा है जो ब्रिटिश अधिकारी पर्वती क्षेत्र के दौरे पर आए तो स्थानीय जनता के लिए अनिवार्य होगा कि उनके लिए निशुल्क प्याऊ की व्यवस्था के बाद एक ऐसी घटनाएं होने लगी। जहां लोगों ने इस कुप्रथा के खिलाफ बगावत शुरू कि कहीं अंग्रेजों का आदेश मानने से इनकार किया जाने लगा। कहीं निर्माण के लिए पत्थरों की उपयोगिता रोक दी गई। कहीं खाने पीने की व्यवस्था करने से इंकार कर दिया जाने लगा तो कहीं कुलियों की उपलब्धता बंद कर दी गई। यह मुद्दा लगातार का मुद्दा गरमाया। इन छोटी-छोटी और जरूरी पहलू का प्रतिफल इस साल 1960 में सरकार ने घोषणा की कि भविष्य में बेगार और बर्दाश्त का मूल्य दिया जाएगा। हालांकि हवाई 18 तारीख को खत्म करने की राह में प्रमुख पड़ाव रहा। साल 1960 में गढ़वाल में कुली एजेंसी की स्थापना।
पौड़ी गढ़वाल के तहसीलदार ज्योत सिंह नेगी ने कुली बेगार से परेशान ग्रामीणों की समस्याओं को कुछ कम करने की दिशा में एक प्रयत्न किया जो सिंह नेगी ने डिप्टी कमिश्नर के दौरे पर अपने सवाल पट्टी के प्रत्येक परिवार से अगवानी में कुल्लू की व्यवस्था कर दी। आडवाणी का कार्य कर रहा ऐसे में से पूरे जिले में लागू कर दिया गया। स्थाई रूप से निश्चित मासिक वेतन पर काम करने लगे। कोटद्वार पौड़ी बांध घाट, श्रीनगर दुगड्डा लेता हूं। जैसी अन्य जगहों में कुली एजेंसी में कुछ खर्चा भी रखे गए जो अंग्रेज अधिकारियों का सामान धन करते थे। स्कूल एजेंसी को ट्रांसपोर्ट एंड सप्लाई कोऑपरेटिव एसोसिएशन 1913 तक गढ़वाल में 10 कुल एजेंसियों की स्थापना होगी। अब धीरे-धीरे प्रत्येक परिवार से ₹1 की जगह ₹1 बार आने से लेकर चोर पराठा नेता किया जाने लगा। शिकार और बर्दाश्त की व्यवस्था के लिए किया जाता था। अब इन कुली एजेंसी के संचालन के लिए भी एक समिति की जरूरत महसूस होने लगी। लिहाजा एजेंसी के सफल संचालन के लिए एक समिति का गठन किया गया। इसकी जिम्मेदारी। रायबहादुर तारा दत्त गैरोला को शॉपिंग गढ़वाल की तर्ज पर कुमार के कुछ भागों जैसे नैनीताल अल्मोड़ा भीमताल खैरना एजेंसी की स्थापना की गई। ₹2 वार्षिक को लेकर लेकर स्थाई सभी के बदले का कार्य करने लगे।
नैनीताल अल्मोड़ा भीमताल खैरना एजेंसी की स्थापना की गई ₹2 वार्षिक को लेकर स्थाई सभी के बदले का कार्य करने लगे। इस व्यवस्था को कोई फर्क पड़ नहीं रहा था। उनके लिए काम तो अभी भी मुफ्त में ही हो रहा था। कुमाऊ के बुद्धिजीवियों ने एजेंसी को सही हल नहीं मानो हर गोविंद गोविंद बल्लभ पंत पांडे, इंद्र लालसा और मोहन सिंह, धर्मपाल जैसे अन्य क्रांतिकारी नेताओं ने मिलकर एक सामाजिक संगठन कुमाऊं परिषद का गठन किया। 1918 में जब परिषद का हल्द्वानी में दूसरा अधिवेशन हुआ तो तारा दत्त गैरोला के अध्यक्षता में यह प्रस्ताव लिया गया कि सरकार को 2 साल के अंदर-अंदर कुली बेगार प्रथा को समाप्त करना होगा। अन्यथा यह मान किसी बड़े जनांदोलन का रूप लेने के खिलाफ माहौल बनने लगा था। साल 1920 में जब कुमाऊं परिषद का चौथा अधिवेशन हुआ तो फैसला लिया गया कि 14 जनवरी को मकर सक्रांति के दिन बड़ा विरोध किया जाएगा। सही हुआ कि उत्तरायणी मेले में जब। संख्या में पहाड़ के अलग-अलग इलाकों से लोग शामिल होंगे। इस बार के खिलाफ सामूहिक को अंजाम दिया जाएगा।
हरगोविंद कुमाऊं परिषद के 50 से ज्यादा कार्यकर्ता बागेश्वर पहुंच धीरे-धीरे उनके साथ सैकड़ों लोग शामिल हो गए। कुली कुली उतार बंद करो, लिखा हुआ था। तमाम लोग वंदे मातरम भारत माता की जय महात्मा गांधी की जय के नारों के साथ बाजार भर में कुली बेगार के खिलाफ आवाज बुलंद करें। 10000 लोगों की विशाल जनसभा में तब्दील हो गया। सभा के नेता भाषण दे जनता को स्पष्ट किया कि नहीं है और इसकी पुष्टि उच्च न्यायालय ने पांडे को भाषण देना था। उन्होंने कहा, यह कानून ना पीली न वकील का बेगम की सफलता के बाद हम जंगलों के लिए आंदोलन करेंगे। फिलहाल आप सभी लोग पैसा निकालना। लकड़ी तथा जंगल के ठेके का काम छोड़ दें। इसके बाद उन्होंने जोशीले अंदाज में लोगों से पास में ही मौजूद बाल नाथ मंदिर की शपथ लेकर कुली बेगार को कभी न मानने के लिए कुछ देर तक हजारों लोगों की खामोशी शायरी कुछ ही सेकेंड बाद सभी लोगों ने सामूहिक स्वर में शपथ लेते हुए कहा, हम खुली नहीं बनेंगे। सभी ने हाथ उठाकर उतारना देने की घोषणा की सरकार अन्याई है। स्वतंत्र भारत की जाए और महात्मा गांधी की जय के नारों के साथ सरूपगढ़ घाटी गूंजने लगी। इसके साथ ही माल गुजारो ने अपने अपने गांव के कुली रजिस्ट्रो को सरयू नदी में फेंकना शुरू कर दिया। देखते ही देखते सारे रजिस्टर सरयू नदी के प्रवाह में इस घटना को देखकर अंग्रेज अधिकारियों के होश फाख्ता हो गए। उन्होंने जनता के विद्रोह को काबू करने की कोशिश की। मगर हजारों लोगों के आक्रोश को देखते हुए अंग्रेज प्रसन्न रहें। शंभू प्रसाद साह अपनी पुस्तक गोविंद बल्लभ पंत जी ने इस घटना का जिक्र करते हुए कहते हैं कि डिप्टी कमिश्नर ट्राईबल नेताओं को गिरफ्तार कर जनता पर गोलियां चलाना चाहता था उसके पास। 5 सिपाही और मात्र 700 गोलियां जबकि वहां मौजूद लोगों की संख्या 15000 से भी ज्यादा थी। नेताओं की गिरफ्तारी चलाने की स्थिति में अफसरशाही के जीवित बचने की संभावना नहीं आ जाओ। छोड़ पांडे और उनके साथियों को इस बात की। आशंका थी कि कहीं हजारों लोगों पर गोलियां चला के दौरान कमिश्नर साहब कितनी गोलियां चलाओगे तो चलाओगे पर यह समझ लेना कि जनता की चट्टान उनसे नहीं टूटी। तुम्हारी गोलियां खत्म हो जाएगी। तुम अच्छा है, खड़े रह जाओगे। यहां 40,000 बहादुर है। यह सब लाशों के ढेर हो जाएंगे, किंतु इनमें से एक भी पीछे नहीं हटे गा। आंदोलन के पश्चात बद्री दत्त पांडे को कुमारी के नाम से भी जाना जाने लगा था।
कुली बेगार आंदोलन का प्रभाव कुमाऊं क्षेत्र में अधिक देखने को मिला। उत्तराखंड के प्रख्यात कवि गौरी देशपांडे गवर्नर ने उत्सव को लेकर एक कविता लिखी, चंदिया, चंदिया, कुली बेगार उत्तराखंड सरकार की जनविरोधी नीतियों से संबंधित कागजात नदी में प्रवाहित गढ़वाल के मुकुंदी लाल बैरिस्टर और अनुसूया प्रसाद बहुगुणा अमृतसर कांग्रेस में सम्मिलित हुए। कांग्रेस के विरोध में राजनीतिक जागृति पहले उन्होंने विकास की समाप्ति के लिए इसके प्रति जनता में भारी रोष था कि आंदोलन आरंभ कर दिया। पुलिस 1920 में सारे गढ़वाल में कुली बेगार और जंगलात में अधिकारों के लिए घोर आंदोलन चला। 1 जनवरी, 1921 को मुकुंदी लाल बैठक की अध्यक्षता में साल में एक सार्वजनिक जनसभा होगी। मंगतराम खंतवाल आदि ने प्रधानाचार्य से त्यागपत्र दे दिया क्योंकि का प्रबंध करने तथा कुली बेगार ना देने वालों को दंड देने का माध्यम प्रधानों को भी बनना पड़ता था। गजेंद्र किताब उत्तराखंड के जन आंदोलन में जिक्र मिलता है कि मार्च 1919 में जब श्रीनगर गढ़वाल में कुमाऊं परिषद की एक सभा आयोजित हुई जिसकी अध्यक्षता कर रहे तारा दत्त गैरोला ने अपने भाषण में पहले तो ब्रिटिश सरकार की प्रशंसा की और बाद में कुली बेगार प्रथा के माथे का कलंक मानते हुए इस प्रथा को समाप्त करने की मांग की। संभवत उनकी चालाकी के कारण पूरे देश में सरकार उनकी बात को खत्म कर दे। मगर रोलेट एक्ट पारित होने के बाद और गांधीजी की गिरफ्तारी के बाद सारे समीकरण बदल अप्रैल 1919 को महात्मा गांधी ने देश भर में सत्याग्रह आंदोलन छेड़ा। कुत्तों के छात्र-छात्राओं से अपील की गई कि वे स्कूल छोड़ कर विरोध दर्ज करें और आंदोलन का हिस्सा बने। ऐसे में बनारस से कुछ गढ़वाली छात्र वापस अपने अपने घरों की ओर आने लगे।
चंदूलाल धूलिया जो आनंद बडोला और गोवर्धन बड़ौदा शामिल हुए। गढ़वाल में बैरिस्टर मुकुंदी लाल और गढ़ केसरी के नाम से विख्यात अनुसूया प्रसाद बहुगुणा जी मुख्य रूप से कुली बेगार आंदोलन की कमान अपने हाथों में लिक्विड गढ़वाल और ब्रिटिश कुमाऊ के अतिरिक्त टिहरी रियासत में भी कुली बेगार व्याप्त था। दीदी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग 2 में डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल लिखते हैं और राज्य के छोटे बड़े सभी पदाधिकारियों का भार ढोना पड़ता था। इसके अतिरिक्त यदि कोई अंग्रेज या राज्य से बाहर का कोई भद्र पुरुष राजा से या राज्य के उच्चाधिकारियों से आज्ञा लेकर घूमने फिरने शिकार खेलने यह किसी भी व्यक्तिगत के सरकारी कार्य से राज्य में भ्रमण करने आता तो उसके और उसके साथ चलने वाले राज्य कर्मचारियों के भार को भी धोना पड़ता था। इसके अलावा राज्य में प्रत्येक गांव के हर घर से हर साल राजा के घोड़ों। पशुओं के लिए था तथा राज परिवार एवं राज्य कर्मचारियों के लिए दूध भी और अंगार के रूप में पहुंचाया जाता था। हर पट्टी के प्रत्येक गांव से सभी परिवारों से एक-एक व्यक्ति एक साथ कोई दिन सुनिश्चित करके अपने दल के साथ राजमहल पहुंच सके। ऐसा करने के बाद उन्हें संबंधित ठेकेदार राज कर्मचारी सबसे पहले अपने व्यक्तिगत कार्य करवाते थे। कई बार 1 महीने तक भी उन्हें जालौर कुमार के खिलाफ जनता आंदोलन के शासनकाल संबंधित जानकारी मिलती है कि अपने राज्य में 1920 में।
जनता आंदोलन के शासनकाल संबंधी एक डायरी से जानकारी मिलती है। राजन शाह ने भी अपने राज्य में 1920 में बेगार प्रथा के उन्मूलन की घोषणा कर दी। घोषणा के बावजूद भी बेकार वसूली जाती रियासत की ओर से प्रकाशित होने वाले गजट के 13 अक्टूबर 1941 के अंत में बेगार बंद करने के संबंध में घोषणा प्रकाशित की गई थी। मगर पटवारी एवं राज्य कर्मचारी इसके बाद भी ग्रामीणों से उनका शोषण करते रहे। विशाल जनाक्रोश के बाद इस आंदोलन की चिंगारी पूरे उत्तराखंड में फैल चुकी थी। गिरफ्तारी होने लगी। इसके बावजूद जनता एकजुट है और कुली बेगार कुली उतार देने से इंकार कर के अधिकारियों को अब देश में गांधी जी द्वारा चलाए जा रहे भारत की अन्य कई जगहों में भी स्थानीय मुद्दों को लेकर लोग मुखर होने लगे थे। उनका सर कुमाऊं और गढ़वाल में भी इस तरह देखने को मिला। डॉक्टर शिव प्रसाद डबराल किताबों में मिलता है। किशनगढ़ वालों का डिप्टी कमिश्नर था। तब सरकार ने सदन में एक विधेयक लाकर इस प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर दिया था।
आंदोलन को और व्यक्ति के नाम से जाना कि साल 2021 को इस ऐतिहासिक आंदोलन के 100 साल पूरे हो चुके विक्रम आपको कैसा लगा। हमें कमेंट करके जरूर बताइएगा। हमारी वेबसाइट www.devbhoomilive.in पर जाकर आप अपने मन मुताबिक सुनकर हमें समर्थन भी रह सकते हैं ताकि हम लाते रहे ऐसे ही।
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