बग्वाल। बगवालीपोखेर।बग्वाल का अर्थ है।बग्वाल मेला

                 कुमाउनी में बग्वाल का अर्थ है 'पाषाण वर्षा' अथवा 'पाषाण युद्ध का पूर्वाभ्यास'। पाषाण युद्ध पर्वतीय योद्धाओं की एक विशिष्ट सामरिक


प्रक्रिया रही है। महाभारत में इन्हें 'पाषाणयोधी' 'अश्मयद्ध विशारदा' कहा गया है। वे लोग पाषाण युद्ध में बड़े प्रवीण होते हैं। अत्यंत प्राचीन काल से ही हमें उनके इस विशिष्ट युद्धकौशल का उल्लेख मिलने लगता है। महाभारत के युद्ध में इस पाषाणयोधी पर्वतीय वीरों ने कौरवों की ओर से लड़ते हुए सात्यकि के छक्के छुड़ा दिये थे। राजा रघु जब अपनी दिग्विजय यात्रा में हिमालय के राजाओं को जीतने के लिए आये थे तो उनके सैनिकों को यहाँ के 'पाषाणयोधी' पर्वतीय सैनिकों का सामना करना पड़ा था। कालीदास कहते हैं







“तत्र जन्यं रघोघोरै पर्वतीयैः गणैरभूत्।

 नाराचक्षेपणीयाश्म निष्पेपोत्पतिता नलम्।। (रघुवंश 4.77),,


जिस प्रकार वर्षाकाल की समाप्ति पर यहाँ के राजपूत शासकों के द्वारा अपनी विजय यात्राओं के पूर्व युद्धाभ्यास किया जाता था उसी प्रकार इन पर्वतीय क्षेत्रों के छोटे-छोटे ठकुरी शासकों अथवा माण्डलिकों के द्वारा भी वर्षाकाल की समाप्ति पर युद्धाभ्यास किया जाता था, जिसे 'बग्वाल' कहते थे। इसमें प्रमुख अभ्यास पाषाणयुद्ध के रूप में किया जाता था क्योंकि इसमें ही उनकी सर्वाधिक कुशलता होती है।


काल बताया जाता है कि चन्दशासन में कुमाऊँ की इस पाषाणयुद्ध की परम्परा जीवित थी। उनकी सैनिकों की ऐसी टुकड़ियाँ होती थीं जो कि अपने गोफनों (ख्योतारों) से दूर-दूर तक मार करने में सिद्धहस्त होती थीं। बग्वाली के अवसर पर इसका प्रदर्शन भी हुआ करता था।


पाषाणयुद्ध पर्वतीय क्षेत्रों की सुरक्षा का एक अभिन्न अंग हुआ करता थ। इसकी पुष्टि कुमाऊँ की उस पुरातन परम्परा से भी होती है जिसके अनुसार यहाँ के तंग दर्रा को पार करते समय प्रत्येक व्यक्ति वहाँ पर एक पत्थर (लोढ़ा/घन्तर) ले जाकर रखना अपना धर्म समझता था। इन दरों को 'बूड़ीदेवी' का स्थान कहा जाता था और वहाँ पर पत्थर चढ़ाना ही उसकी अर्चना समझा जाता था। ऐसी पाषाण राशियां आज भी इन दरों पर देखी जा सकती हैं। आक्रमणों के समय दूसरी ओर से आते हुए शत्रुओं के सैनिकों पर इन्हें वर्षाया जाता था और बड़े पाषाणों (इवनसकमत) को ऊपर से लुढ़का दिया जाता था।


मूलतः दीपावली के दूसरे दिन अर्थात् यमद्वितीया (भैय्यादूज) के दिन मनाये जाने वाले इस लोकोत्सव का स्वरूप यद्यपि अब काफी बदल गया है किन्तु इसके इस नाम से इस बात का स्पष्ट संकेत मिलता है कि इसी दिन इस क्षेत्र में बग्वाली का त्यौहार मनाया जाता था।




कुमाऊँ के समान ही क्षत्रियों के सुदृढ़ गढ़, कांगड़ा (हि.प्र) में भी इसके प्रचलित होने के उदाहरण मिलते हैं। प्रो. शर्मा ऐसी परम्परा हिमाचल के अन्य स्थानों में होने की बात भी करते हैं.....।

। कुमाऊँ मंडल में पहले बग्वाल का आयोजन विभिन्न स्थानों पर हुआ करता था। कालीकुमाऊँ में प्रचलित एक लोकोक्ति- 'दस दसैं बीस बग्वाल कालिकुमू फुलि भंगाल' से स्पष्ट है कि पिछले समयों में यहाँ के बीस स्थानों में बग्वाल मनायी जाती है। कहा जाता है कि पहले पट्टी गुमदेश के पुलहिंडोला के चलमदेवाल में रामनवमी के दूसरे दिन मेला लगता था और उसमें देवीधुरा की बग्वाल के समान ही महर और फड़त्यालों धड़ों के बीच बग्वाल का आयोजन हुआ करता था। इसमें कई लोग आहत और हत भी हो जाते हैं। 1815 में अंग्रेजों के द्वारा इसे प्रतिबन्धित कर दिया गया। इसी प्रकार कालीकुमाऊँ की एक जनश्रुति के अनुसार दीपावली के बाद यम द्वितीया के दिन बिसुङ् पट्टी के सभी जातियां महर और फड़त्याल धड़ों में बंटकर इसे खेलती थीं। उल्लेख्य है कि कुमाऊँ में भैयादूज अथवा यमद्वितीया को 'बग्वाली'



कहा जाता है। चम्पावत क्षेत्र के क्षत्रियों (महर-फड़त्याल) के बीच होने वाली बग्वाल के विषय में डा. रामसिंह (2002-86-87) का कहना है कि “इन दो धड़ों के बीच यमद्वितीया (भैयादूज) के दिन बगवाल के आयोजन के लिए दोनों पक्षों के लोग बहिन-बेटियों से टीका, आरती करवाकर, त्योहार के लिए बनाये गये पकवानों और व्यंजनों से तृप्त होकर पड़ोस के किसी निर्धारित मैदान में अपने-अपने दलबल के साथ एकत्रित होते थे। दोनों दल अपने-अपने दलबल ठिकाने की आड़ लेकर एक दूसरे पर पत्थरों से मारामारी करते थे। दोनों पक्षों के लोग आपस में सगे सम्बन्धी, पड़ौसी, साथी जैसे घनिष्टता के नाते रिश्तों से जुड़े होते हुए भी पत्थरों की मार के समय सब कुछ भूलकर दूसरे धड़े के लोगों पर बड़े जोश से पत्थरों की वर्षा करते थे। बिसुङ की सभी जातियों के लोग इसमें हिस्सा लेते थे।”   बगवाल का यह पर्व कोई पत्थर मार वाला खेल नहीं है। यह पर्व सिर्फ शांति रूप से बनाया जाता है। माना जाता है कि चन्दों के शासन की समाप्ति के साथ ही बग्वाल की परम्परा भी यहाँ समाप्त हो गयी। अंग्रेजों ने शासन की बागडोर संभालते ही इसे प्रतिबन्धित कर दिया। अब केवल देवीधूरा में यह परम्परा अवशिष्ट रह गयी है। ,  




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