महाजनपद-काल से शुङ्गकाल तक
महाजनपद-काल (छठी शती ई०पू०)
उत्तर भारत में कांस्य-युग के मानव ने सातवीं शताब्दी ईसवी पूर्व के आस-पास 'ऐतिहासिक युग' में प्रवेश कर लिया था। उत्तर भारत में छठी शती ईसवी पूर्व का काल महाजनपद-काल अथवा प्राग्-बुद्धकाल के नाम से प्रसिद्ध है। बौद्ध अंगुत्तरनिकाय, जैन भगवती-सूत्र, पाणिनि-कृत अष्टाध्यायी, आदि साहित्यिक स्रोतों से तत्कालीन जिन छोटे-बड़े जनपदों एवं गणराज्यों के नाम हमें मिलते हैं, प्रो० टी० डब्ल्यू० रीज डेविड्स के अनुसार, "ये नाम देशवाची न होकर वहाँ के निवासियों (People) के हैं।'' पाणिनि ने, जिसका काल रा०गो० भाण्डारकार एवं रा०कु० मुकर्जी ने ७०० ई०पू० तथा र०च० मजुमदार एवं वा० अग्रवाल ने ५०० ई०पू० माना है, मध्य हिमालय के कुछ 'जनपदों' के नाम दिये हैं। ये जनपद कुरु तथा उत्तर-पाञ्चाल राज्यों के उत्तर में स्थित थे-'कलकूट' (४.१.१७३), 'कुलुन' (४.२.६३), 'कत्रि' (४.२. ६५), 'युगन्धर' (काशिका), 'रंकु' (४.२.१००), 'उशीनर' (२.४.२०; ४. २.११८) और 'भारद्वाज' (४.२.१४५)। डॉ० वा० अग्रवाल के अनुसार, 'कलकूट' यमुना की उपरली धारा का यामुन प्रदेश था, 'कुलुन' सतलज के दक्षिण टोन्स नदी तक का प्रदेश और 'युगन्धर' साल्वावयव के अन्तर्गत यमुना का तटवर्ती प्रदेश। 'रंक' की पहचान निश्चित नहीं है। सम्भवतः यह अलकनन्दा एवं पिण्डर के पूर्व का रंका भाषी प्रदेश था, और 'कत्रि' सम्भवतः अलमोड़ा जनपद का कत्यूर।' परन्तु हमारे मत से कत्रि की कत्यूर से एकता मात्र नाम-साम्य पर आधारित है। वस्तुतः इसकी स्थिति अलकनन्दा-घाटी में प्रतीत होती है। 'भारद्वाज' को पार्जीटर ने गढ़वाल से समीकृत किया 'उशीनर' की स्थिति, कथासरित्सागर के अनुसार, कनखल के समीप थी। रायचौधरी इस उशीनर पर्वत को दिव्यावदान का उशीरगिरि मानते हैं। ज्ञात होता है कि छठी शती ई०पू० के पारम्भ में, नागों एवं कुणिन्दों की अनेक शाखाएँ ही इस प्रदेश में प्रधान राजशक्तियाँ थीं। पशुप, किम्पुरुष, खश, आदि जातियों का अब नाम नहीं सुनायी देता।
इस प्रकार, मध्य हिमालय-सहित उत्तर भारत में इस काल में कोई सार्वभौम सत्ता नहीं थी। आगे, नन्दों को उत्तर भारत में प्रथम विशाल साम्राज्य स्थापित करने का श्रेय प्राप्त है। सिकन्दर के आक्रमण के समय (३२७-३२५ ई०पू०) इस वंश का अन्तिम सम्राट् औग्रसैन्य पाटलिपुत्र का शासक था। सिकन्दर के विजय-अभियान के पश्चात्, उत्तरापथ (उत्तर-पश्चिमी भारत) में अलेक्जैण्ड्रिया (काबुल-घाटी में), बूकेफल, निकाइया, आदि यवन-बस्तियाँ बस गयी थीं, परन्तु उनमें अनेक का जीवन अल्पकालीन सिद्ध हुआ। परन्तु भारतीय अथवा यूनानी किसी स्रोत से मध्य हिमालय के उक्त जनपदों पर उसके अधिकार का कोई प्रमाण नहीं मिलता।
२. मौर्य-काल
(३२४-१८७ ई०पू०)
इस काल में, साहित्यिक स्रोतों के साथ पुरातत्त्वीय स्रोतों के मिल जाने से मध्य हिमालय का इतिहास पूर्व से अधिक स्पष्टता के साथ उभरने लगता है। मौर्य-काल में, इस प्रदेश की राजनीतिक स्थिति के लिए हमारे पास सामग्री के तीन स्रोत हैं :
(१) अशोक का कालसी शिला-प्रज्ञापन,
(२) साञ्ची एवं सोनारी के धातु-मञ्जूषा लेख, और
(३) अशोकावदान, मुद्राराक्षस तथा तारानाथ के वर्णन।
कुछ साहित्यिक स्रोतों से विदित होता है कि हिमालय का यह प्रदेश मौर्य साम्राज्य के अन्तर्गत 'विजित' प्रदेश था। अशोकावदान एवं लामा तारानाथ के अनुसार, अशोक ने यौवन में 'खशों' को जीता था। परन्तु अशोक ने न इस प्रदेश के खशों को जीता था, और न यह अशोक साम्राज्यका 'विजित' प्रदेश था। हेमचन्द्र के जैन-परिशिष्टपर्वन् एवं विशाखदत्त के मुद्राराक्षस के अनुसार, ग्रीक विदेशी शासन से भारतभूमि को स्वाधीन करने के अभियान में, चन्द्रगुप्त ने हिमालयीय राजा पर्वतक से मैत्री-सन्धि की थी। पर्वतक मध्य हिमालय में उन लोगों का राजा ज्ञात होता है जिन्हें महाभारत में 'पार्वतीयाः' कहा गया है। अधिकांशतः चन्द्रगुप्त द्वारा निर्मित साम्राज्य पर ही उसके पुत्र बिन्दुसार तथा पौत्र अशोक ने शासन किया। अतएव मध्य हिमालय चन्द्रगुप्त के राज्यकाल (प्रायः ३२४-३०० ई० पू०) से ही मौर्य साम्राज्य के सीमान्त पर एक मित्र राज्य था। दिव्यावदान के अनुसार, बिन्दुसार ने अपने पुत्र अशोक को कुमार (Viceroy) के रूप में जब तक्षशिला में उठे विद्रोह को शान्त करने भेजा था, तब वहाँ से उसने स्वशों (खशों?) को विजितकर अपने साम्राज्य में मिलाया था। यदि यह विजय सत्य है तो, ये 'विजित खश' सुदूर उत्तरापथ-स्थित गन्धार-विषय की पर्वतीय जातियाँ रहीं होंगी, मध्य हिमालय की नहीं।
सिंहली बौद्ध ग्रन्थ महावंश (१२.४१-४३) के अनुसार, अशोक-काल में यह 'अन्त' जनपद धर्म-विजय द्वारा अधीन हुआ था। इसमें वर्णित है कि तृतीय बौद्ध-संगीति के अध्यक्ष थेर मोग्गलिपुत्त तिस्स (=उपगुप्त) ने 'हिमवत्' में, हिमाचल प्रदेश से कुमाऊँ पर्यन्त, धर्म-विजय के लिए थेर मज्झिम और उसके चार साथियों को भेजा था। इस अनुश्रुति की पुष्टि साञ्ची एवं सोनारी स्तूप-मञ्जूषा लेखों से हो चुकी है, जिनमें हेमवत् के इन आचार्यों के नाम अङ्कित हैं। ५ सिंहली अनुश्रुति अधिक विश्वसनीय प्रतीत होती है।
कालसी में सम्राट अशोक के शिला-प्रज्ञापन की प्राप्ति से भी प्रमाणित होता है कि यह प्रदेश अशोक साम्राज्य की उत्तरी सीमा में था। यमुना-टोन्स सङ्गम-स्थित कालसी (प्राचीन कालकूट) मध्य हिमालय में तब कुणिन्द जनपद (पाणिनि का कलकूट) की राजधानी थी। अतः कालसी में प्रज्ञापन उत्कीर्ण करवाने का कारण है कि यह प्रदेश धर्म-विजय द्वारा पहले ही मौर्य-साम्राज्य के अन्तर्गत आ चुका था। डॉ० रायचौधरी भी मानते हैं कि, कालसी, रुम्मिनदेई तथा निगाली सागर के अशोक-स्तम्भों पर उत्कीर्ण लेखों से सिद्ध है कि देहरादून जनपद तथा तराई-क्षेत्र भी अशोक के साम्राज्य केअन्तर्गत था। ६ परन्तु मध्य हिमालय के पर्वतीय भागों में शासन पूर्ववत् कुणिन्द नरेशों द्वारा होता रहा होगा। अतएव मध्य हिमालय, जो सम्भवतः एकाधिक जन-राज्यों से युक्त था, अशोक का 'राज-विषय' ७ था जो संरक्षित राज्य की भाँति अपने आन्तरिक विषयों में स्वतन्त्र था। पूर्व की ओर अशोक के रुम्मिनदेई एवं निग्लीव-अभिलेखों के प्राप्ति स्थानों से विदित होता है कि नेपाल तराई भी अशोक-साम्राज्य का अङ्ग थी। सारांश में, मध्य हिमालय में कुणिन्द मौर्ययुग में भी स्वतन्त्र दिखायी देते हैं।
ज्ञात होता है कि इसी काल में, अशोक के शासनकाल के सत्रहवें-अठारहवें वर्ष में, हिमवत्' में बौद्ध धर्म का सर्वप्रथम प्रचार प्रारम्भ हुआ। मध्य हिमालय में बौद्ध धर्म की यह पहली लहर थी।
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