कुमाऊँ का कातियुर राजवंश

कुमाऊँ का कातियुर राजवंश

उत्तर भारत में साम्राज्यभोगी गुप्तों के काल में भी कौणिन्दों का कर्तृपुर-राज्य' मध्य हिमालय में स्वतन्त्र शासन कर रहा था। छठी शती के उत्तरार्द्ध तथा सातवीं शती के पूर्वार्द्ध के मध्य में, एक अल्पकाल के लिए, कर्तृपुर-राज्य' के ही एक भाग पर ब्रह्मपुर के पौरवों का शासन स्थापित हुआ। उनके दानपत्रों में पौरव-राज्य का नाम तो मिलता है परन्तु उनसे उसकी सीमाओं का ठीक-ठीक ज्ञान नहीं होता। ज्ञात होता है कि अलकनन्दा के पश्चिमी भागों वाली अधिकांश कौणिन्द-भूमि पर उनका आधिपत्य नहीं हो सका था। वहाँ अब भी किसी न किसी रूप में कौणिन्दों की सत्ता विद्यमान थी। पौरवों के पराभव होने पर, 675 ई० तथा 700 ई० के मध्य कौणिन्द बसन्तनदेव ने अपने परम्परागत राज्य पर पुनः अधिकार कर लिया। इस प्रकार, कातियुर राजवंश से पूर्व, समस्त उत्तराखण्ड पर 'कार्तिकेयपुर राजवंश' का शासन था। 'कार्तिकेयपुर राजवंशीय' चौदहवें राजा सुभिक्षराजदेव के कुछ ही काल पश्चात्, ग्यारहवीं शती ईसवी के प्रारम्भ में, इस राजवंश के नरेशों को अपनी राजधानी पूर्व की ओर गोमती-घाटी में स्थानान्तरित करनी पड़ी। वहाँ दो-तीन पीढ़ियों के पश्चात् ही इस महान् राजवंश का अवसान हो गया, यह इसी कार्तिकेयपुर साम्राज्य के खण्डहरों पर, कुमाऊँ में कातियुर वंश का उदय हुआ।

वंश-नाम तथा उद्भव

मध्यकाल में कुमाऊँ के बैजनाथ स्थान में जिस नये राजवंश का उदय हुआ, उसे एडविन टी० एटकिन्सन तथा उसके अनुसरणकर्ताओं ने कत्यूरी' नाम दिया। जबकि 'कत्यूरी' नाम किसी मध्यकालीन अभिलेख अथवा साहित्य में प्राप्त नहीं होता। 'कत्यूरिया' अथवा 'कत्यूरी' सर्वथा आधुनिक नाम है और मात्र मौखिक लोक-गाथाओं में मिलता है। इस कारण  कत्यूर-बैजनाथ  बैजनाथ का इतिहास     के इस मध्यकालीन राजवंश के मूल नाम एवं उद्भव पर सर्वप्रथम विचार करना आवश्यक है। वस्तुतः अवसानकालीन कार्तिकेयपुर नरेशों के पराभव के उपगन्त, ग्यारहवीं शती ईसवी के तृतीय-चतुर्थ दशक में, कत्यूर-बैजनाथ में जिय राजवंश की स्थापना हुई उसे मूलतः 'कातियुर वंश' कहा जाता था। इसकी पुष्टि महाराजा जतबालदेव के कुलसारी मूर्ति-अभिलेख' में आये 'कातियुर' नाम से होती है। तभी इन शासकों के नाम से 

गोमती-घाटी का नाम भी 'कातियुर' हो गया होगा, जो अब कत्यूर कहलाती है।कातियुर' नाम निश्चय ही संस्कृत शब्द 'कार्तिकेयपुर' का विकसित रूप ने किया 【'कार्तिकेयपुर' के परवर्ती विकसित रूप इस प्रकार दिये थे-】 “【कार्त्तिकपुर > कत्तियउर > कत्तिउर > कत्यूर"।】 इन सम्भावित रूपों को देते समय राहुल का पूर्वाग्रह एटकिन्सन द्वारा प्रचलित कत्यूर' अथवा 'कत्यूरी' नाम से मिलाने का था। उन्हें विकास की स्वाभाविक धारा में आया अन्तिम 'कातियुर' शब्द भी तब नहीं मिला था। अब अभिलेख में इस शब्द के मिलने से, ‘कार्तिकेयपुर' के विकसित रूप अग्रलिखित होने चाहिए : कार्त्तिकपुर > कात्तियउर > कात्तिउर > कातियुर। ,इस कारण पूर्वकालीन कार्तिकेयपुर नरेशों के समान, इस अध्याय में वर्णित 'कातियुर' (तथा-कथित कत्यूरी) भी क्या कुणिन्दवंशीय क्षत्रिय थे? अधिक सम्भावना यह है कि पूर्वकालीन कुणिन्दों अथवा कार्तिकेयपुर राजवंश की ही किसी दूरस्थ शाखा ने इस नये राजवंश की स्थापना की है जो केदार भूमि के पश्चिमोत्तर भाग में निवास करती थी, 

कुमाऊनी जागर रहस्य

 इस उत्थान-काल में कातियुर' नाम से प्रसिद्ध हुई। कुमाउँनी 'जागर' गाथाकारों ने इसे ही 'कत्यूरी' वा 'कथापुरी' कहा है। मध्यकाल में बैजनाथ में स्थापित 'कातियुर राजवंश' के सम्बन्ध में यह सम्भावना अधिक तार्किक लगती है।एक 'जागर' गाथा के आधार पर, एक कुमाऊँ के इतिहास में "राजा नारसिंह देव और उसके परिवार के शासन" की कल्पना की गयी है। किन्तु राजा रूप में नारसिंह की ऐतिहासिकता किसी अभिलेख एवं वंशावली से सिद्ध नहीं होती। कुमाउँनी 'जागर' गाथाओं में ही अन्यत्र राजा आसन्तिदेव द्वारा जोशीमठ से राजधानी परिवर्तन की बात भी कही गयी है। उसमें भी वासुदेव के वंशज किसी अन्य राजा द्वारा कत्यूर-घाटी में जाने की गाथा वर्णित है। यह गाथा सत्य के निकट प्रतीत होती है, जैसा कि हम आगे विवेचन करेंगे। अतएव नारसिंहदेव तथा उसके परिवार की कल्पना अनैतिहासिक है। यह अनुश्रुति बहुत बाद की और पूर्णतः भ्रान्तिपूर्ण है। अधिकांश लोकगाथाओं एवं 'गुरुपादुका' कीअनुसार, नारसिंह नाथपंथी साधु था, और उसी के परामर्श से आसन्तिदेव ने राजधानी कत्यूर में स्थानान्तरित की।

बैजनाथ में स्थापित व कथित कत्यूरी के उद्भव के सम्बन्ध में निम्न निष्कर्ष -:


1-: कत्यूर-बैजनाथ में शासन करने वाले क्षत्रियों के इस नये राजवंश का तत्कालीन नाम 'कातियुर' था जो मूल की दृष्टि से कदाचित् कुणिन्द था। यदि वे कुणिन्द थे तो, व्यापक परिपेक्ष्य में, इन्हें उत्तराखण्ड इतिहास के 'मध्यकालीन कुणिन्द' भी कह सकते हैं। कुमाउँनी लोक-गाथाओं में बहुत पीछे इन्हें ही 'कत्यूरी' कहा गया है। इस प्रकार, गाथाओं का कत्यूरी' शब्द मूल जातिगत (generic) नाम नहीं है।


2-: कातियुर कुणिन्दों की उस दूरस्थ शाखा के थे जो गढ़वाल के पश्चिमोत्तर में कभी निवास करती थी, और जिसे किसी दबाव से पूर्व की ओर सङ्क्रमित होना पड़ा। अतएव कातियुरों के उद्गम के लिए उन्हें “सिन्धु-पार के पहाड़ी खस कटोरों" के साथ मिलाने  के बात कपोलकल्पना-मात्र है

3-:कार्तिकेयपुर राजवंश' प्राचीन है, जबकि इस अध्याय में वर्णित बैजनाथका 'कातियुर राजवंश' (तथा-कथित कत्यूरी) मध्यकालीन है। प्रथम वंश के पाण्डुकेश्वर-ताम्रपत्राभिलेख एवं द्वितीय की राजावलियाँ इन्हें दो पृथक् राजवंश सिद्ध करते हैं। पाण्डुकेश्वर-ताम्रशासनों के राजागण राजावलियों के राजाओं से नहीं मिलते हैं। जहाँ प्राचीन ताम्रपत्रों में राजधानी ‘कार्तिकेयपुर' का स्पष्ट वर्णन है, वहाँ कुमाउँनी गाथाएँ रणचूलाहाट, लखनपुर, बैराठ राजधानियों को जानती हैं कार्तिकेयपुर को नहीं जानतीं "अभिलेखों में आये तेरह कत्यूरी राजाओं को इनसे (राजावलियों से) मिलाना बहुत कठिन है। 




【__कातियुर इतिहास के स्रोत__】   

【 वैद्यनाथ के प्रारम्भिक कातियुरों के सम्बन्ध में ऐतिहासिक सामग्री इतनी नगण्य है कि उससे उनकी वंशावली तथा राज्यकाल का निश्चय करना, वास्तव में, अत्यन्त कठिन है। उनके सम्बन्ध में उपलब्ध सामग्री मुख्यतः तीन रूपों में मिलती है : पुरातत्त्वीय साक्ष्य, राजावलियाँ और 'जागर' लोकगाथाएँ।】


पुरातत्त्वीय सामग्री -:/

पुरातत्त्वीय स्रोतों से दो प्रारम्भिक कातियुर राजाओं के नाम मिले हैं। कुलसारी मूर्ति-अभिलेख में वंश-नाम के साथ “महाराजा [ धिराज? ] जतबालदेव" का नाम भी अङ्कित है। इसमें उसकी पत्नी "कसाणी राणी" कही गयी है। विदित होता है कि उसने अपनी बदरीनाथ-यात्रा के काल में यात्रा-पथ पर स्थित कुलसारी में इस देवमन्दिर का निर्माण किया था। लिपि के आधार पर वह बारहवीं शती ईसवी के पूर्वाद्ध में शासन करता था जब परमार समस्त गढ़वाल के स्वतन्त्र शासक थे। वह परम वैष्णव था, उसने कुलसारी में देव-मन्दिर निर्मित कर उसमें लक्ष्मीनारायण की प्रतिमा प्रतिष्ठित की। इस राजा का उखेख वंशावलियों में नहीं हुआ है।अलमोड़ा नगर के निकट स्थित 'बडादित्य मन्दिर' प्रख्यात है 


जिसे कटारमख मन्दिर भी कहते हैं। जिस ग्राम में यह अवस्थित है उसे भी कटारमख कहते हैं। स्पष्टतः इस मन्दिर का निर्माण कातियुरवंशी कटारमल्लदेव ने किया था। इस मन्दिर से तीन लघु अभिलेख मिले हैं जिनमें से एक में मखदेव. पढ़ा जाता है। मन्दिर-वास्तुकला एवं लिपि के आधार पर कटारमखदेव का राज्यकाल ग्यारहवीं शती ई० के अन्तिम दशक से बारहवीं शती ई० के प्रथम दशक के मध्य, अनुमानित होता है। डोटी तथा असकोट राजावलियों में भी इस राजा का नामोखेख है।

इस प्रकार, इन दोनों राजाओं का राज्यकाल बारहवीं शती ई० प्रारम्भ के आस-पास विदित होता है। उनके द्वारा निर्मित उक्त देवमन्दिर मध्यकालीन रेखा-शिखर तथा छत्र रेखा-शिखर प्रासादों के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।हम बता चुके हैं कि 'वैद्यनाथ-कार्तिकेयुपर' में कार्तिकेयपुर नरेश सुभिक्षराज के वंशजों का पराभव 1050 ई० के आस-पास अथवा इससेएक-दो दशक पूर्व हो चुका था। यदि कातियुर कटारमखदेव का काल 1080-60 के आस-पास माना जाय तो जतवालदेव कातियुरवंश-संस्थापक आसन्तिदेव से चौथी-पाँचवीं पीढ़ी का शासक रहा होगा।


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