उत्तर-गुप्तकाल
स्कन्दगुप्त के पश्चात्, जब गुप्त राजवंश का प्रताप ढलने लगा, तब मध्य हिमालय की राजनीतिक अवस्था क्या थी, इस पर साहित्यिक साक्ष्य तो सर्वथा मौन हैं। परन्तु उत्तर-गुप्तकालीन कुछ ऐतिहासिक अभिलेखों की प्राप्ति से ज्ञात हैं होता है कि इस प्रदेश में कुछ परम्परागत राजवंश शासन कर रहे थे, जिनमें यादव तथा नाग प्रधान थे। -
सिंहपुर का यदु राजवंश
हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं कि सिंहपुर के यदुवंशीय राजाओं का ज्ञान हमें ईश्वरा की 'लाखामण्डल-प्रशस्ति' से होता है। लिपि के आधार पर, ने इसे ७वीं शती ईसवी, तथा कीलहॉर्न ने प्रायः ७वीं शती ईसवी अन्त- का माना है। साहनी एवं जायसवाल इसे छठी शती ईसवी में रखते हैं। ६ प्रशस्ति में इस राजवंश के ग्यारह पीढ़ियों के बारह नृपतियों का नामोल्लेख है, जिनकी स्थिति प्राक्-गुप्तकाल से कम-से-कम हर्षवर्द्धन के काल तक रही होगी। उत्तर-गुप्तकाल में, कीलहॉर्न के अनुसार ७वीं शती ईसवी अन्त के आस-पास, इस राजवंश के श्री-भास्करवर्मन् की पुत्री तथा जालन्धर-राजकुमार श्री-चन्द्रगुप्त की धर्मपत्नी ईश्वरा ने जब लाखामण्डल के ऐतिहासिक स्थल पर एक शिवमन्दिर बनवाया, तब उसने यहाँ यह शिलालेख खुदवाया था।
प्रशस्ति से अप्रत्यक्षत: दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं : (१) विरुद से ये यदुवंशी राजा अधीनस्थ शासक प्रतीत होते हैं। जायसवाल महोदय के अनुसार, “यह वंश अवश्य ही वाकाटकों का सामन्त रहा होगा।" एक अस्थायी संकल्पना मानना चाहिए। (२) प्रशस्ति के अनुसार, पर्वतीय गढ़ों (शैल दुर्गाणि) के अनेक शासक उनके अधीन थे। 'समरघङ्गल' एवं 'रिपुघङ्गल' विशेषणों से वे वीरकर्मा विदित होते हैं। अतएव यामुन प्रदेश में ही सातवीं शती ई० में उनके अस्तित्व से प्रतीत होता है कि पूर्व-वर्णित छागलेश का राजवंश यदुओं के अधीन हो चुका होगा।
यदु राजवंश के संस्थापक श्री-सेनवर्मन् का राज्यारोहण काल बूलर ने चतुर्थ शती ईसवी के आरम्भ में, और जायसवाल ने २५० ईसवी के आस-पास अनुमानित किया है। समकालिकता, नामसाम्य एवं 'वर्मन्' नामान्त के आधार पर अश्वमेधकर्ता शीलवर्मन् तथा सेनवर्मन् को एक ही राजवंश का होने की सम्भावना प्रकट की गयी है। परन्तु वास्तविकता यह है कि इनके नाम एवं वंश में कोई एकता नहीं है। इस तथा-कथित एकता का मैं अन्यत्र खण्डन कर चुका हूँ।"
प्रशस्ति में यामुन प्रदेश के यदुओं की राजधानी ‘सिंहपुर' बतायी गयी है। इतिहासकारों के अनुसार, चन्द्रों के पतनोपरान्त, ग्यारहवीं शती के द्वितीय चतुर्थांश में पूर्वी बंगाल में वर्मन् सत्ता में आये जो अपने को यादववंशीय मानते हैं। भोजवर्मन् के बेलाव-ताम्रपत्र १२ के अनुसार, वर्मनों के पूर्वज सिंहपुर के शासक थे। इससे कुछ विद्वान् सिंहपुर को वर्मनों का मूलस्थान मानते हैं जहाँ से वे पूर्वी बंगाल में आये। १३ ताम्रपत्र के 'सिंहपुर' की पहचान पर विवाद रहा है। इस सिंहपुर को कभी पञ्जाब में नमक-की-पहाड़ी के निकट (युवान्-च्वाङ् का Sang-ho-pu-lo), कभी कलिङ्ग में (अभिलेखों में निर्दिष्ट) और कभी राढा (=लालरट्ट, महावंश, ६) में खोजने का प्रयास किया गया। परन्तु हमारे मत से, यह सिंहपुर लाखामण्डल-प्रशस्ति का सिंहपुर हो सकता है। ऐसा प्रतीत होता है, पूर्वी बंगाल में वर्मन् राजवंश का ज्ञात आदि शासक वज्रवर्मन् अथवा उसके किसी पूर्वज के नेतृत्व में, वर्मनों ने किसी शक्ति के दबाव में (सम्भवतः वह शक्ति नाग अथवा स्रुघ्न थी) यामुन प्रदेश को छोड़कर पूर्वी बंगाल की विजय की, और वहाँ अपने मूलस्थान सिंहपुर के नाम पर नव राजधानी का नामकरण किया। यही कारण है कि सातवीं शती ईसवी के उपरान्त यामुन प्रदेश से यदुओं का अस्तित्व यकायक विलुप्त हो जाता है।
लाखामण्डल-प्रशस्ति के 'सिंहपुर' की पहचान देहरादून जनपद में वर्तमान लाखामण्डल (पुराना नाम मढ) से की जानी चाहिए।
नाग राजवंश
मध्य हिमालय ही नहीं उसके पश्चिमी पड़ोसी प्रदेशों में भी छठी-सातवीं शती ई० में नागवंश के अस्तित्व का पता चलता है। इस सूचना का प्रमुख स्रोत उस वंश के दो त्रिशूल-लेख हैं जो शुद्धमहादेव (जम्मू-कश्मीर) तथा गोपेश्वर (गढ़वाल) से प्राप्त हो चुके हैं। गोपेश्वर त्रिशूल लेख में क्रमागत चार नाग नरेशों के नाम हैं; स्कन्दनाग, विभुनाग, अंशुनाग और गणिपतिनाग।
उल्लिखित है कि गणपतिनाग ने अपने द्वितीय राज्यवर्ष में रुद्रमहालय के समक्ष शक्ति (=त्रिशूल) की स्थापना की। प्रो० जगन्नाथ अग्रवाल शुद्धमहादेव लेख के विभुनाग को पद्मावती-परिवार (ग्वालियर) का मानते हैं। उनका अनुमान है कि विभुनाग दक्षिण से शुद्धमहादेव मन्दिर की तीर्थयात्रा पर आया होगा। डॉ० के०वी० रमेश भी यही अनुमान करते हैं। परन्तु ये स्थापनाएँ लेखक ० को स्वीकार्य नहीं हैं। प्रथम, प्रो० अग्रवाल तब गोपेश्वर के नाग-लेख से अनभिज्ञ थे। गणपतिनाग के कश्मीर एवं केदार प्रदेशों में दो अभिलेखों की प्राप्ति से वह इन प्रदेशों में मात्र-तीर्थयात्री नहीं माना जा सकता। द्वितीय, काल की दृष्टि से भी समुद्रगुप्त के समकालीन पद्मावती के गणपतिनाग (प्रायः ३१०-३४४ ई०) से त्रिशूल-लेखों के गणपितनाग की एकता सङ्गत नहीं है। तृतीय, त्रिशूल-लेखों में गणपतिनाग के पिता का नाम अंशुनाग है, जबकि भावशतक' के अनुसार पद्मावती नरेश गणपतिनाग का पिता जालप बताया गया है।
हम पूर्व ही स्थापित कर चुके हैं कि, न इस वंश का अन्तर्वेदी के विषयपति शव॑नाग के वंश से निकट सम्बन्ध था, न गणपतिनाग की बाड़ाहाट त्रिशूल-लेख के गणेश्वर से कोई एकता। वास्तविकता यह है कि बाड़ाहाट त्रिशूल-लेख उत्तरी ब्राह्मी में है जबकि शुद्धमहादेव तथा गोपेश्वर के त्रिशूल-लेख छठी-सातवीं शती ईसवी की दक्षिणी ब्राह्मी में।
गणपतिनाग उत्तरी नागवंश का सर्वाधिक शक्तिशाली शासक प्रतीत होता है। उसका राज्य–विस्तार हिमालय में कर्तृपुर (गढ़वाल तथा पास-पड़ोस) से कश्मीर पर्यन्त विस्तृत होने का अनुमान होता है। सम्भव है यामुन प्रदेश से यदुओं का अस्तित्व मिटाने में नाग-शक्ति का ही हाथ रहा हो। परन्तु गणपतिनाग के पश्चात् ही स्वयं नागों का अस्तित्व कैसे मिट गया, यह हमें विदित नहीं है। क्या त्रुघ्नों की शक्ति को इसके लिए उत्तरदायी मानना चाहिए? -
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