ग्रामीण समाज मे पौराणिक शास्त्र सम्मत धर्म से पृथक परम्परागत धार्मिक विश्वास ही उसका लोकधर्म रहा इनका संबंध मुखतः यहाँ के खश-किरातादि निवासियों से था। वैदिक धर्म, पौराणिक धर्म तथा बौद्ध-जैन धर्मों की प्रबल लहरें भी. इस काल में, उसके लोकधर्म की गहरी आस्थाओं को न डिगा सकी। परन्तु हेनरी ह्वाइटहेड द्वारा दक्षिण भारतीय ग्राम देवताओं का जैसा अध्ययन प्रस्तुत किया गया है, वैसा अभी हिमालयीय ग्राम-देवताओं पर नहीं हुआ। जबकि हिमालयीय लोकधर्म की अनेक निजी महत्त्वपूर्ण विशिष्टताएँ हैं, और उसके निवासियों के लोक विश्वासों पर नृवंशीय तथा पर्वतीय पारिस्थितिकी की अमिट छाप है।
हमारे पड़ोसी भोटदेश के धार्मिक जीवन के प्रत्यक्षदर्शी डेविड मैक्डॉनाल्ड ने लिखा है कि आठवीं शती ई० में बौद्धधर्म के प्रवेश से पूर्व, तिब्बत में पूजा के प्राचीनतम रूप ‘बोन' में भूत-पूजा (Devil-worship) ही प्रधान थी। भूत-पिशाच की पूजा करना, शारीरिक एवं मानसिक सम्पूर्ण रोगों का कारण भूत का प्रवेश मानना, अंधड़-तूफान का कारण भी भूत-प्रभाव मानना, इनके निवारण के लिए पुजारियों-ओझाओं द्वारा तन्त्र-मन्त्र, पशुबलि तथा नरबलि से गाड-गधेरों में अभिचार-पूजा करना, ये बातें प्राचीन बोन धर्म में प्रचलित थीं। बोनधर्म के ये अभिचार भोटदेश के आन्तरिक भागों में आज भी प्रचलित हैं, तथा लामाधर्म में अनेक बोन विश्वास तथा बोन पूजा-विधियाँ सम्मिलित की गयी हैं। ४ 'बोनधर्म' की ये समस्त बातें, भोटदेश के समीप ही हिमालय के दक्षिणी पार्श्व पर अवस्थित गढ़वाल-कुमाऊँ के प्राचीन लोकधर्म में यथावत् प्राप्त होती हैं। इस प्राचीन लोकधर्म के अनेक रूप आज भी इस क्षेत्र के आन्तरिक भागों में प्रचलित हैं और पौराणिक धर्म के यहाँ पदार्पण होने पर, उसमें भी यह लोकधर्म घुलमिल गया है। अतएव, बोनधर्म तथा उत्तराखण्ड के प्राचीन लोकधर्म के तुलनात्मक अध्ययन से,लोकधर्म
ग्रामीण समाज मे पौराणिक शास्त्र सम्मत धर्म से पृथक परम्परागत धार्मिक विश्वास ही उसका लोकधर्म रहा इनका संबंध मुखतः यहाँ के अनेक महत्त्वपूर्ण निष्कर्षों के साथ, हिमालय के दोनों पार्यों के नृवंशीय पक्षों पर भी नृतन प्रकाश पड़ने की सम्भावनाएँ हैं।
इस काल में भी, मध्य हिमालय में लोक-देवताओं की इतनी विविधता रही है कि, उन्हें अनेक वर्गों में विभक्तकर समझा जा सकता है। मूल स्रोत की दृष्टि से, ये स्थानीय 'जनजातीय देवता' तथा 'ब्राह्मणदेवता' दो वर्गों में मिलते हैं। इनमें प्रथम खश-किरातादि जातियों के प्राचीन देवता हैं तथा द्वितीय कालान्तर में प्रविष्ट देवता। जड़-चेतन की से , ये देवता दो प्रकार के हैं :
वृक्ष-शिलादि 'जड़-देवता' तथा नाग-यक्षादि चेतन-देवता'। प्रभाव की दृष्टि से. भूत-प्रेत-टोला-आँछरी 'अनिष्टकारी देवता' हैं तथा घण्डियाल (घण्टाकर्ण) क्षेत्रपाल, जाख, नागर्जा ‘हितकारी-देवता' हैं। क्षेत्र के विचार से, कुछ 'आञ्चलिक-देवता' हैं अर्थात् वे गढ़वाल के मात्र किसी अञ्चल विशेष में ही मान्य हैं। रवाँई में, श्रीकुलदेवता, शिकारूनाग, काश्मीरदेवता, मास् या महासूदेवता, पोखूदेवता तथा सोमेश्वरदेवता ऐसे ही अञ्चल विशेष के देवता हैं जो गढ़वाल में अन्यत्र नहीं मिलते। दूसरी ओर, 'यक्ष', 'क्षेत्रपाल', 'जाख', आदि वे 'सार्वदेशिक देवता' हैं जो कि सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में प्रचलित हैं। मूल की दृष्टि से, कुछ 'आवजित देवता' हैं जो इतर प्रदेशों से गढ़वाल में आये। रवाँई-बावर के मासूदेवता, सोमेश्वरदेवता कुखू-कश्मीर से आये माने जाते हैं। दूसरे वे बहुसंख्यक 'स्वदेशी' या 'स्थानीय देवता' हैं जिनमें जाखदेवता (यक्ष), घण्डियाल, सौंल्या, नगेला, नरसिंह को गिना जा सकता है। ऐतिहासिक दृष्टि से, दो प्रकार के लोकदेवता हैं : घण्डियाल, जाख, भूमिया, आदि ‘अनैतिहासिक देवता' हैं, तथा पाण्डव, धामदेव आदि कत्यूरी राजा, गोरक्ष सम्प्रदाय के गुरु सत्यनाथ, नागनाथ आदि 'ऐतिहासिक देवता' हैं। स्वरूप के विचार से, पोख, डौंड्यानरसिंह, भैरों, जग्स 'अशान्त देवता' हैं, तो दूधियानरसिंह, भूमियादेवता 'शान्त-देवता'। 'ग्वालिया' ग्वालों एवं पशुचारकों के, ‘खड़पत्या', 'सौंल्या' पथिकों के तथा 'भूमिया' भूमि के रक्षक देवता हैं। लोक-देवताओं के इस संक्षिप्त वर्गीकरण द्वारा उनकी यथार्थ प्रकृति का ज्ञान होता है। इन लोक-देवताओं की प्रकृति में, उनकी परम्परागत पूजा-विधियों में तथा उनके सम्बन्ध में आयोजित समारोहों, नृत्यों, जागरों में हिमालयीय लोकधर्म स्पष्टरूपेण प्रतिबिम्बित होता है।
आलोच्य काल में भी हिमवन्त का समाज उत्तरदिशाधिपति यक्षराज कुबेर को अपना संरक्षक मानता रहा। सीमान्तक ग्राम माणा में 'मणिभद्र यक्ष' की पूजा होती थी, तथा पर्वत-शिखरों पर 'घण्डियाल' (घण्टाकर्ण) यक्ष की। टिहरी गढ़वाल की धार अकरिया पट्टी में 'घण्टाकर्ण शिखर' पर घण्टाकर्ण का थान है। मार्गशीर्ष से फाल्गुन तक गाँवों में घण्टाकर्ण की 'जात' चलती है। उसके साथ लाटू तथा हीत भी चलते हैं जो उसी के भाई माने जाते हैं। लोक में बहुमानित 'जाखदेवता' यक्ष देवता ही था। 'कण्डल यक्ष' की पूजा भी यत्र-तत्र प्रचलित थी। पौड़ी के निकटवर्ती ग्रामों का भूमिया (क्षेत्रपाल) कण्डल यक्ष ही है। कालान्तर में, वही अपभ्रंश रूप में कण्डलिया > कण्डोलिया कहा जाने भी यत्र-तत्र लगा। जाख, जाखणी, जखण्ड, जखोली, कण्डल, कण्डाली ग्रामों के नाम यक्ष-पूजा के पुरावशेष हैं। सिरीगाँव (उत्तरकाशी), देवशाल, मखी टंगणी (चमोली), आदि गाँवों में जाख देवता के प्रसिद्ध मन्दिर हैं। सिरीगाँव के जाखदेवता की गङ्गोत्तरी-यात्रा प्रति बारह वर्ष उपरान्त होती है।
लोकधर्म में वैसा ही महत्त्व नाग-पूजा का था। कश्मीर से लेकर नेपाल पर्यन्त सम्पूर्ण हिमालय ही नागपूजा के प्रभाव में था। हिमालय प्रदेश में निवास करनेवाली आद्य-ऐतिहासिक नाग जाति तथा उनका नागचिह्न ही कालान्तर में, लोक में नागपूजा में परिवर्तित हो गया। वे वासुकिनाग, कालीयनाग, फेनिलनाग, पिङ्गलनाग, मूलनारायणनाग, इत्यादि नामों से पूजे जाने लगे। गढ़वाल में नागथान, नागसिद्ध, सेम, आदि स्थान उनकी पूजा के केन्द्र बने तो कुमाऊँ में पातालभुवनेश्वर तथा बेणीनाग। इस काल में, ऊँचे 'डाँडों' (ranges) तथा 'धारों' (ridges) में 'नगेला' और 'नागराजा' नाम से अनेक थान स्थापित थे। पाण्डुकेश्वर में शेषनाग, नागनाथ में पुष्करनाग, दशौली में तक्षकनाग, रतगाँव में भेकलनाग, जेलम में लोहँडियानाग, हरी में कालीयनाग तथा बजीरा में नगेला की पूजा होती थी। इस प्रकार, यक्ष तथा नाग लोक में सर्वत्र ग्रामदेवता के रूप में पूजित हो रहे थे, और आज भी हो रहे हैं।
पितृ-पूजा
पितृ-पूजा भी लोकधर्म का एक प्रमुख अङ्ग रहा है। ग्रामों में सपिण्डी परिवारों की अपनी-अपनी 'पितर-कुड़ि' होती हैं जो झुरमुटों के बीच अपने आदि-सरल रूप में देखी जा सकती हैं।
लोक-विश्वास था कि अकाल मृत्यु को प्राप्त बाल युवा-युवतियाँ 'भूत', 'पिशाच' और 'आँछरी' बन जाती हैं। अकाल मृत्यु नदी में डूबकर, चट्टान से गिरकर अथवा फांसी लगाकर हो जाती थीं। लोकविश्वास के अनुसार, उनकी अतृप्त आत्माएँ पर्वत-शिखरों, नदी-तटों तथा अँधेरी सुनसान घाटियों में घूमा करती हैं। उनके सम्पर्क में आते ही लोगों की मृत्यु हो जाती है। इसलिए ग्रामीण समाज उन्हें पूजा द्वारा सन्तुष्ट करता था।
उखेखनीय है कि, ये लोकदेवता आलोच्यकाल में ही नहीं, इससे पूर्वकाल में भी लोक में प्रचलित थे। इन्हें मत्स्य में 'देवयोनि' तथा पतञ्जलि में 'लौकिक देवताओं' के पृथक् वर्ग में रखा गया है। इनके अतिरिक्त, गाय तथा भैंस के दुधारू होने पर, दृध की शुद्धि तथा वृद्धि के लिए ग्यारहवें दिन क्रमश: 'बालण' एवं 'बध्वाण' की पूजा की परम्परा थी। निम्रवर्ग के लोग भूत', 'हन्त्या' पर अधिक विश्वास करते थे और 'निरंकार', 'भैरव' तथा 'नरसिंह' उनके विशिष्ट देवता थे।
'सर्वतीर्थमयी गङ्गा' का यशोगान महाकाव्य एवं पुराणों में विशद रूप में हुआ है। यही श्रद्धा एवं आस्था लोक में गङ्गाजल के प्रति पँवार-काल में भी बनी रही। समकालीन रचना 'केदारखण्ड के अनुसार, गङ्गाद्वार तथा पञ्चप्रयागा में स्नान-दान की परम्परा थी। 'केदारखण्ड' के आरम्भ में ही जल को ब्रह्मस्वरूप माना गया है ( 'ब्रह्मद्रवरूपं') तथा गङ्गाजल-माहात्म्य पर बहुशः प्रवचन हैं। इसमें पावन गङ्गा का सरस्वती, वेदमाता, सरिच्छृष्टा, व्यासमाता, नारदी, सर्वतीर्थमयी, इत्यादि नामों से पुण्य स्मरण किया गया है गढ़वाली तन्त्र-मन्त्रों में, केदारभूमि के जल को बारंबार प्रणाम किया गया है
इस काल में भी तीर्थयात्रा में लोगों का पूर्ववत् दृढ़ विश्वास था। बदरी, केदार, गङ्गाप्रभव, यमुनाप्रभव तथा नन्दादेवी-शिखर की यात्राएँ प्राक्-पँवारकाल से ही प्रचलित थीं। पँवारकाल में, कुछ तीर्थों की यात्रा वर्ष में कभी भी हो सकती थी, कुछ की पर्व विशेष पर तथा कुछ की कालान्तर विशेष पर होती थी। प्रति बारह वर्ष में 'नन्दादेवी-राजजात' का आरम्भ कदाचित् पँवार-काल में ही हुआ। यह 'जात' (यात्रा) राजधानी चान्दपुरगढ़ से प्रारम्भ होती थी जिसमें सम्पूर्ण उत्तराखण्ड के यात्री सम्मिलित होते थे। नन्दादेवी की 'छोटी जात' कुरुड़ से प्रतिवर्ष होती थी। ये परम्पराएँ लोक में आज भी पूर्ववत् प्रचलित हैं। विभिन्न देवताओं की डोली-यात्रा को 'देवरा-जात्रा' या 'बन्यात' कहा जाता था। सिरीगाँव (उत्तरकाशी) के 'जाखदेवता' की डोली प्रति बारह वर्ष में स्नान-यात्रा पर निकलती रही है। पट्टी लस्या में बजीरा की 'नगेला की जात' भी प्रति बारह वर्ष में निकलती थी। तीर्थयात्राओं में तन-मन दोनों की शुद्धता आवश्यक मानी जाती थी। पैदल-यात्रा की प्रथा थी।'५ यात्री यात्रारम्भ में गणेश, स्कन्द, भैरव, वेदव्यास तथा सूत की पूजा करते थे।
जल-पूजा' के साथ, गढ़-कुमाऊँ दोनों हिमालयी अञ्चलों में शिला-पूजन भी लोकधर्म का अङ्ग था। हरिद्वार में नारायणीशिला, देवप्रयाग में वराहशिला एवं नारसिंहीशिला तथा बदरी में कुबेरशिला एवं नारदशिला के परम्परा लोक में प्रचलित थी।
प्राक्-पँवारकाल से ही पवित्र तीर्थों में तथा हिमालय के उतुङ्ग शिखरों से प्राणत्याग करने की लोक परम्परा देशव्यापी थी। देवप्रयाग तथा गोपेश्वर यात्री-लेखों में कदाचित् उन तीर्थयात्रियों के नाम भी हैं जिन्होंने भृगुतुङ्ग प्राणत्याग किया था। गोपेश्वर के यात्री-लेख निश्चितरूपेण पँवारकालीन हैं।इस काल में भी, महापन्थ, नरनारायणस्थान, तुङ्गनाथ, गोस्थल. इत्यादि तीर्थस्थलों में प्राणत्याग के उल्लेख मिलते हैं।
एक ओर, यहाँ के आदिनिवासियों के विश्वासों ने, दूसरी ओर, शैव-शाक्तादि पौराणिक धर्मों और नाथ-सिद्ध योगियों के विचारों ने उत्तराखण्ड के लोकधर्म को विशिष्ट रूप दिया।
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