11 वीं सदी की मुद्राएं। उत्तराखंड में प्रचलित 11 वीं सदी की मुद्राएं

 राजा तथा राज्य-शासन


हम देख चुके हैं कि ग्यारहवीं शती उत्तरार्द्ध के पश्चात्, पँवार-नरेश गढ़भूमि के एक बड़े भाग के स्वतन्त्र शासक बन चुके थे। आगे, पन्द्रहवीं शती ई० के अन्त में महाराजा अजयपाल ने सर्वप्रथम समस्त गढ़भूमि पर अधिकार कर लिया। कार्तिकेयपुर-राजाओं के उपरान्त, उनके साम्राज्य के पश्चिमी प्रदेश पर इस प्रकार जो राजनीतिक एकता पँवारों ने स्थापित की वह प्रायः साढ़े चार सौ वर्षों तक विद्यमान रही। हिमालयी राज्य गढ़देश का विस्तार, आलोच्यकाल की रचना केदारखण्ड में गङ्गाद्वार से उत्तर में श्वेतपर्वत तक तथा पश्चिम में तमसा (टौन्स) के तट-प्रदेश से पूर्व में बौद्धाचल तक बताया गया है। टौन्स के पश्चिम में राईगढ़ (रामीगढ़), डोडाक्वाँरा तथा मैली के राणा भी गढ़देश के अधीन थे' जो अब हिमाचल प्रदेश में हैं। ब्रिटिश काल में भी, बिजनौर जनपद के अस्तित्व में आने के पश्चात् १८४२ ई० तक, की गढ़-राज्य दक्षिणी सीमा चण्डी ताखुक तथा तराई में मोरध्वज से दक्षिण तक थी।।



मुद्राओं का अभाव 

आलोच्यकाल में विविध प्रकार की मुद्राओं का अभाव था। जो मुद्राएँ प्रचलित थीं वे अधिकांशतः ताम्र की होती थीं। राजा लखनदेव की ताम्रमुद्रा अब तक उपलब्ध पँवार मुद्राओं में सर्वप्राचीन है। वास्तव में, मुद्रा का प्रचलन बहुत कम था। इसके दो कारण थे : प्रथम, अधिकांश व्यापार एवं लेन-देन वस्तु-विनिमय द्वारा होता था। कौड़ियाँ भी मुद्रा के स्थान पर प्रयुक्त होती थीं। द्वितीय, राज्य की आर्थिक दशा अत्यन्त दयनीय थी। आर्थिक दैन्यता के लिए एक ओर राज्य की कृषि भूमि की अनुर्वरता उत्तरदायी थी तो, दूसरी ओर, किसी सीमा तक स्वयं राजाओं की राजस्व नीति भी उत्तरदायी मानी जा सकती है जिसमें राज्य की सहस्रों 'नाली' भूमि अग्रहार में चढ़ायी गयी थी। अस्तु मुद्राओं का अभाव राजाओं की विपन्नता का सूचक है।



भूमि-माप एवं भार-मान 

पँवारकाल में माप-तौल के विशिष्ट स्थानीय मान थे जिनका गढ़वालियों के आर्थिक जीवन से सीधा सम्बन्ध था। भूमि-माप की सबसे बड़ी इकाई 'ज्युला' थी और सबसे छोटी ‘मुट्ठी' (सं०, मुष्टि)। 'ज्युला' दो प्रकार के थे :-

(1):- 'चौखुण्टा ज्युला' 16 दोण बीज का होता था और उसकी एक 'अधाली' (आध ज्युली) 8 दोण बीज की होती थी। 

(2):- चक्रज्युला' 4 दोण बीज का तथा उसकी 'अधाली' 2 दोण बीज की होती थी। बृहत् भूमिखण्डों एवं पट्टियों की माप 'ज्युला' से की जाती थी। 'ढाईजुली', 'दशज्युला', आदि पट्टियाँ इसी से मापी गयी थीं। पट्टियों के यही नाम कुमाऊँ में भी मिलने से ज्ञात होता है कि ज्युला-मान सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में प्रचलित था। “34 ज्युला माटी", "आध ज्युली माटी" तथा "अधाली" का उखेख पँवार-लेखों में मिलता है। 

एक नाली मे कितनी जमीन (क्षेत्र) होता है......?

भूमि-माप की इससे छोटी इकाइयाँ 'खार', 'बीसी', 'भार', 'दोण', 'पाथा' (नाली) तथा ‘मुट्ठी' थीं। जितने क्षेत्र में एक नाली (पाथा) बीज बोया जाता था उस क्षेत्र की माप 'एक नाली' मानी जाती थी।'' 'बीसी' बीस नाली भूमि की होती थी। 'चुखड़ी' भी, 'मुट्ठी' की भाँति, भूमि-माप की लघुतम इकाई प्रतीत होती है।


अन्नादि की तौल 


अन्नादि की तौल के लिए धातु वा काष्ठ के मापक-पात्र प्रचलित थे। तौल के इन मानों को वेदाङ्गज्योतिष में 'धान्यमान' वा 'भारमान' कहा गया है। उत्तरोत्तर क्रम से, अन्न-तौल की ये इकाइयाँ इस प्रकार थीं :-
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अन्नादितौल
अन्नादि तौल का भाव अन्नादि की तौल का मूल्य
1 तामी चौथाई सेर
1 माणी,माणा,सेर चौथाई माली ( आधा पक्का सेर = आधा पौण्ड)
1 कुड़ी 1 सेर पक्का
1 पाथा(नाली) 4 माणा/2 कुड़ी (2 सेर पक्का)
1 दोण,पिराइ 16 नाली/32 सेर पक्का
1 बीसी 20पाथा (नाली)
1 भारो (भार) 6 दोण
1 खार 20 दोण(16 मन)



उस काल में दोण, पाथा, सेर, भारमान के रूप में प्रचलित थे। महाराजा अजयपाल ने एक मानक 'पाथा' प्रचलित किया था जिसे 'छूली पाथा  कहा जाता था। पहाड़ में तौल एवं क्षेत्रफल दोनों के लिए निश्चित माप 'नाली' थी और आज भी है। द्रव्य वस्तुओं की तौल भी 'माणी' एवं 'पाथा' से होती थी। इसमें सबसे छोटी इकाई 'पली' या 'पोली' होती थी जो दिये के समरूप लोहे का पात्र होता था। पँवार अभिलेखों में 'सत्र पथा घ्यु', '3 नाली घ्यू', '17 पली घी', '12 सेर घी' का उल्लेख मिलता है। वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में द्रव वस्तुओं के मान को 'रसमान' वा 'द्रव्यमान' कहा गया है। वस्तुतः प्रस्थ, नालिका, द्रोण, भार, खारि जैसे भारमानवाची शब्द पँवारकाल से पूर्व भी यहाँ प्रचलित थे।

धातु-तौल


धातु-तौल के लिए, लोह की एक 'तूल' (तुला) होती थी जिस पर 'पल' तथा 'टका' इकाइयों के चिह्न कटे होते थे। तुला द्वारा तौल को शुक्रनीति, 354 में 'उन्मान' कहा गया है। 'तूल' पर उन्मान इस प्रकार मापा जाता था

धातुतौल
मूल्य भाव
1 पल 5 तौला
20 पल 1 टका (100तोला)

इसी 'तूल' से जब स्वर्ण वा चाँदी तोली जाती थी, तब रत्ती, माशा तथा काच (तोला) में गणना होती थी।


(मुद्राएँ)

 दसवीं शती ईसवी के आसपास कार्तिकेयपुर-राजवंश के शासकों की निर्बलता का लाभ उठाकर चान्दपुरगढ़ के परमार (पँवार) स्वतन्त्र हो गये। प्रतीत होता है कि यद्यपि लषणदेव से कुछ पीढ़ी पूर्व उन्होंने अपनी मुद्राएँ प्रचलित कर दी थीं। तथापि, अन्य भारतीय राज्यों की भाँति, द्रव्य-विनिमय (Barter) की ही प्रथा यहाँ भी प्रधान थी और मुद्रा का प्रचलन अल्प था। उपलब्ध परमार मुद्राएँ इस प्रकार हैं :

1) लषनदेव की ताम्र-मुद्र-  परमारवंश का 28वाँ स्वतन्त्र राजा लषनदेव (लखणदेव) का अनुमानित शासनकाल प्रायः 1310 से 1333 ई. है।उसकी एक ताम्र-मुद्रा परमारवंशीय अन्य राजाओं की मुद्राओं के साथ पुराणा दरबार संग्रह टिहरी में उपलब्ध थी। 15 मिमी० व्यास की इस मुद्रा को मैंने उक्त संग्रह में देखा था। इसके पुरोभाग पर शासक का नाम देवनागरी में तथा - भाग पर कुछ अस्पष्ट प्रतीक हैं। पाठक के "परमार शोध"लेख (दिनमान, दिखी, २६ अक्टू०, १६७५) में भी इसका उखेख हुआ है। इस मुद्रा से ह० रतूड़ी (पृ० ३६१) द्वारा दिया सुदक्षणपाल नाम अशुद्ध सिद्ध होता है।

(2)फतेपतिशाह की रजत मुद्रा- परमारवंशीय 46वाँ राजा 'महाराजाधिराज' फतेपतिशाह (1665-66 से 1716 ई०) की इस रजत मुद्रा का चित्र ह० रतूड़ी ने अपने इतिहास के पृष्ठ 238 के सामने  दिया है।
मुद्रा के एक पार्श्व पर 'मेदिनीशाह सूनो श्री फतेशाहावनीपते' 1757 तथा द्वितीय पार्श्व पर 'बदरीनाथ कृपया मुद्रा जयति राजते 1757 संस्कृत में छन्दोबद्ध लेख है। मुद्रा से इस महान् राजा की अपने बदरीक्षेत्र के अधिष्ठाता के प्रति भक्ति तथा संस्कृत के प्रति अनुराग प्रकट होता है।

(3) मोनाशाही रजत तिमाशी- इसका चित्र भी ह० रतूड़ी ने उसी फलक पर दिया है रतूडी के अनुसार, “पूरे तीन माशे की है, यह पाँच मिलाकर 15 माशे का रुपया बनता था"।
नये अन्वेषण के अनुसार, "यह मुद्रा सम्भवतः प्रदीपशाह के शासनकाल (1716-1772 ई०) में श्रीनगर टकसाल में निर्मित हुई। यह लद्दाख मुद्राओं के आदर्श पर बनी है। 'जउ' तथा 'तिमाशी' दोनों मुद्राएँ पश्चिमी तिब्बत में प्रचलित थीं, जिनका, इस क्षेत्र में यात्रा करनेवाले मूरक्राफ्ट तथा स्ट्रैची जैसे यूरोपीयन यात्रियों द्वारा वर्णन किया गया है। इन पर मुद्रालेख अत्यन्त भ्रष्ट है, परन्तु मुगल सम्राट फर्रुखसियर की एक छोटी रजत-मुद्रा का अनुकरण है जो दिखी में ढाली गयी थी।

(४) “जउ' (Ja'u) नामक लद्दाख मुद्रा-ह० रतूड़ी ने उसी फलक पर इसका चित्र दिया है  बताया कि “यह सिक्का पूरे चार आने भर है"। नये अन्वेषण बताते हैं कि यह मुद्रा 16वीं शती के प्रारम्भ में लद्दाख में बनायी गयी थी।

'जउ' नामक इस मुद्रा के एक पार्श्व पर अरबी में 'महमूद', तथा दूसरे पार्श्व पर रतूड़ी की मुद्रा  अति भ्रष्ट अनुकरण है।

इन मुद्राओं के अन्वेषणकर्ताओं के अनुसार, यह रोचक तथ्य है कि 'लद्दाख मुद्रा' जउ दक्षिण में गढ़वाल पहुँची, और यह, वास्तव में, सम्भव है कि रतूड़ी द्वारा दी गयी उक्त मुद्रा  18वीं शती में तिब्बत पहुँची और तदन्तर 16वीं शती में 'लद्दाख मुद्रा' के साथ गढ़वाल लौटी।

(५) उत्तर-पँवारवंशीय शासकों की ताम्र तथा रजत मुद्राएँ-उक्त वर्णित मुद्राओं के अतिरिक्त, प्रदीपशाह, ललितकुमारशाह (1772-80ई०) तथा प्रद्युम्नशाह (1785-1804ई०) की जो मुद्राएँ मिली हैं उन पर फारसी में राजा का नाम अङ्कित है। इन तीनों नरेशों की कुछ मुद्राएँ राज्य संग्रहालय लखनऊ में संरक्षित हैं। पुराणा दरबार संग्रह टिहरी में तो लघनदंव से लेकर परवर्ती पँवार-शासकों की दुर्लभ मुद्राएँ संग्रहीत थीं।

पँवार राजाओं की श्रीनगर टकसाल में ताम्र 'टका' (पैसा), रजत 'तिमाशी' तथा 'रुपये' ढाले जाते थे। उन्नीसवीं शती ईसवी के आरम्भ में, गढ़वाली 'टका' के साथ यदा-कदा मुगल पैसा, तथा गढ़वाली 'रुपया' के साथ फर्रुखाबादी ब्रिटिश रुपया भी चलता था। इन सिक्कों का आपेक्षिक मूल्य इस प्रकार था

 11 वीं सदी के मुद्राएं 
मूल्य भाव
10 टका 1 तिमाशी
40 टका 1 गढ़वाली रुपया
50 टका 1 फर्रुखाबादी
1 गोरखाली रुपया लगभग 12 आना
4 तिमाशी एक गढ़वाली व गोरखाली रुपया
5 तिमाशी 1 फर्रुखाबादी ब्रिटिश रुपया

'टका' तथा 'तिमाशी' का प्रचलन ब्रिटिश शासनकाल में बन्द हो गया।


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