आप कई लोग ये भी सवाल उठाते हैं कि उत्तराखंड जैसे छोटे से राज्य से दो दो भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक राज्य से सिर्फ एक भाषा को ही इसमें जगह मिल सकती है, लेकिन यह तर्क भी इसलिए गले नहीं उतरता क्योंकि कश्मीर से भी कश्मीरी और डोगरी दोनों भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया है गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषा को संवैधानिक मान्यता देने की मांग कोई नई नहीं है ये मांग सालों से होती रही है और किसी भी भाषा को संवैधानिक मान्यता देने के लिए जो भी मोटी मोटी शर्तें हैं वो सभी शर्ते ये भाषाएं पूरा भी करती है .मोटी मोटी शर्तें इसलिए क्योंकि खुद सरकार के पास भी इसका कोई निर्धारित पैमाना नहीं है इन पैमानों को तय करने के लिए उन्नीस सौ छियानवे में पावर समिति और दो हज़ार तीन में सीताकान्त महापात्र समिति बनाई गई थी लेकिन ये दोनों ही समितियां भी कोई निश्चित पैमाना बनाने में नाकाम रही ऐसे में जिन आधारों पर बाकी भारतीय भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया हैं, उन आधारों पर गढ़वाली और कुमाऊंनी दोनों भाषाएं बिल्कुल खरी उतरती है एक करोड़ से ज्यादा लोग इन भाषाओं को बोलते और समझते हैं यह उनकी मातृभाषा है l इन भाषाओं में हर तरह का साहित्य लिखा गया है उपन्यास, कविताएं और काव्य खंड तक लिखे गए शब्दकोश बनाए गए हैं इतिहास में इसके राजभाषा होने के प्रमाण दर्ज हैं लोक संगीत से लेकर लोक कथाओं में इनका समृद्ध इतिहास है देश की साहित्य अकादमी तक गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषा को मान्यता देती है और कई मायनों में तो उत्तराखंडी भाषाओं के शब्दकोष हिंदी से कहीं ज्यादा समृद्ध है मतलब हिंदी में छोटे भाई और बड़े भाई का भेद करने के लिए कोई व्यावहारिक शब्द नहीं है हालांकि आग्रा जो अनुज जैसे क्लिष्ट शब्द है l लेकिन ये आम बोलचाल के शब्दों से बहुत दूर है, लेकिन गढ़वाली में भेजी और जैसे सहज बोलचाल के शब्द ही इस अंतर को एकदम स्पष्ट कर देते हैं ऐसे ही जहाँ हिंदी में किसी गंध को परिभाषित करने के लिए सुगंध और दुर्गंध जैसे सीमित शब्द हैं, वहीं गढ़वाली में लगभग हर प्रकार की गंध के लिए एक विशेष शब्द है यहाँ तक की अलग अलग तरह के कपड़ों के जलने से जो गंध पैदा होती है उसके लिए भी यहाँ अलग अलग शब्द मिलते हैं जैसे उन्हीं कपड़ों के जलने पर किराणा आती है और सूती कपड़े के जलने पर प्राण गढ़वाली और कुमाऊंनी दोनों ही समृद्ध भाषाएं हैं साल दो हज़ार दस में तत्कालीन सांसद सतपाल महाराज ने इन भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल किए जाने के लिए एक प्राइवेट मेंबर बिल भी पेश किया था इस पर जब 19/7/ 2011 के दिन संसद में चर्चा हुई तो उन्होंने काफी प्रभावी तरीके से उत्तराखंड के इन भाषाओं को संवैधानिक मान्यता मिलने के पक्ष में तर्क रखे ठीक है ऐसा ही एक बिल्कुल साल पहले सांसद अजय भट्ट ने भी संसद में रखा, लेकिन ये तमाम प्रयास अभी तक असफल ही रहे गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल करना इन भाषाओं के संरक्षण का सवाल नहीं है lसंरक्षण तो विलुप्त होती चीजों का होता है जबकि गढ़वाली और कुमाऊंनी भाषा लोग के बीच में खूब फल फूल रही है और वैसे भी भाषाओं को सरकार नहीं सहकार बचाते है
लाखों लोग गढ़वाली और कुमाऊंनी को अपनी प्राथमिक भाषा के तौर पर बोल रहे हैं इनमें लिख रहे हैं इनमें बन रहे हैं गाने नई पीढ़ी को भी खूब फिर का रहे हैं इन भाषाओं में ब्लॉगिंग भी हो रही है और ब्लॉगिंग भी और मीम्स तक बनाए जा रहे हैं लेकिन इन्हें संवैधानिक दर्जा मिलना इसलिए जरूरी है ताकि हम अपने लोगों की दूध, बोली, हमारी मातृभाषा, आधिकारिक उपयोग और रोजगार की भाषा बन सके ताकि हमारे प्रतिनिधि हमारी इन भाषाओं में शपथ पढ़ सके और हमारे दूरस्थ गांव में बैठी हमारी इ जाबो ही उस शपथ को अपनी भाषा में समझ सके ताकि हमारे युवा अपनी इन्हीं भाषाओं में परीक्षाएं दे सके, अपनी भाषा पर मजबूत पकड़ के चलते हुए राज्य में रोजगार हासिल कर सकें इनमें साहित्य सृजन को बढ़ावा मिल सके और सबसे अहम बात जिस पर , अस्मिता और पहचान के लिए उत्तराखंड पृथक राज्य का निर्माण हुआ था, वो पहचान इन भाषाओं के जरिए उत्तराखंड को मिल सके पहाड़ी राज्य बनने के बाईस साल बाद भी पहाड़ी भाषाओं की ऐसी उपेक्षा बेहद अफसोसजनक है होना तो ये चाहिए था कि राज्य बनने के बाद दूसरी राजभाषा का दर्जा या अपनी पहाड़ी भाषाओं को दिया जाता, लेकिन उनका यह हक भी मार कर संस्कृत को दे दिया गया संस्कृत भाषा से किसी को बैर नहीं है और इसमें भी कोई संदेह नहीं कि संस्कृत दुनिया भर की सबसे समृद्ध भाषाओं में से एक है, लेकिन सवाल यह है कि क्या संस्कृत को पहाड़ के आम लोगों की भाषा कहा जा सकता है क्या पहाड़ में कभी भी संस्कृत में संवाद या लिखा पढ़ी होती रही हैं या आज हो रही है पहाड़ में संस्कृत सिर्फ पनडित, पुरोहितों और कर्मकांड की भाषा रही है ऐसे में इस भाषा को प्रदेश की दूसरी राजभाषा बनाए जाने की बात एक पॉलिटिकल तो हो सकता है, लेकिन राज्य के निवासियों के लिए ये तो उनकी पहचान से जुड़ी भाषा है और ना ही उनके रोजगार से इसकी जगह गढ़वाली और कुमाऊंनी को उत्तराखंड की दूसरी राजभाषा होना हर तरीके से ज्यादा न्यायसंगत लगता है कुछ लोग ये भी तर्क देते हैं कि जब तक इन पहाड़ी भाषाओं को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करके वैधानिक दर्जा नहीं मिलता, तब तक राज्य सरकार भी इन्हें दूसरी राजभाषा के रूप में जगह नहीं दे सकती लेकिन आठवीं अनुसूची में तो अंग्रेजी भाषा भी शामिल नहीं है, जबकि यह कई राज्यों की पहली या दूसरी राजभाषा है इसके साथ ही मेघालय, छत्तीसगढ़ और झारखंड जैसे कई राज्य हैं जिन्होंने अपनी स्थानीय भाषाओं को अपनी दूसरी राजभाषा का दर्जा दिया है जबकि वे भाषाएं भी संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल नहीं है पहाड़ी भाषाओं को राजभाषा का दर्जा ना मिलने के पीछे एक सरकारी तर्क ये भी रहता है कि इन भाषाओं की कई उप बोलियाँ है ऐसे में किसे आधिकारिक भाषा बनाया जाए इस तर्क पर बात करेंगे लेकिन उससे पहले गढ़वाली और कुमाऊंनी की उपधाराओं पर एक नजर डालते हैं कुमाऊंनी भाषा की करीब दस लिया है पूर्वी कुमाउँनी की चार और पश्चिमी कुमाऊंनी की छह ये है कुमैया सोरयाली सिराली, खसपरजिया, चौगर्खिया, गंगोली, दानपुर या और रॉ चाबी ऐसी ऐसे ही गढ़वाली भाषा में आठ गोलियां है श्री नगरी बधाणी दौसा लिया मार्चकोमियां नागपुर या सलानी राठी और टी हरियाली सिर्फ टिहरी जिले की ही कई उप बोलियाँ और भी है जैसे तकनोरी बड़ा हाथी, रमोलिया, जौनपुरी, रब, उल्टी, बढ़िया और टिहरी इसमें भी टी हरियाली के दो भेद माने गए हैं एक है गगाडी और दूसरा जौनपुरी इन उपधाराओं की आड़ में कुछ लोग तर्क देते हैं कि ऐसे में किसे आधिकारिक भाषा के लिए चुना जाए, लेकिन भाषा विज्ञानी मानते है की ये तर्क भी बेहद हल्का है क्योंकि भाषाओं में उच्चारण और कुछ शब्दों का हेरफेर तो बेहद सामान्य बात है, जबकि लिखित प्रारूप में किसी भाषा का मानकीकरण करने की अगर इच्छाशक्ति हो तो यह काम बेहद सहज और सरल है और असल सवाल भी इसी राजनीतिक इच्छाशक्ति का है, जिसकी कमी के चलते पहाड़ी राज्य बन जाने के बाईस साल बाद भी पहाड़ी भाषाओं का सवाल हाशिए पर पड़ा है
Post a Comment
if you have any dougth let me know