आजादी से पहले उत्तराखंड में कई सारे साप्ताहिक पाक्षिक और मासिक अखबार प्रकाशित होने लगे थे कि मैं अल्मोड़ा अखबार गढ़वाल, समाचार क्षमता स्वाधीन प्रजा कर्मभूमि बाजार बंदूक शक्ति कुमाऊ गढ़वाल उत्तराखंड में भी टिहरी रियासत को छोड़ बाकी गुलामी के दौर में उत्तराखंड में अखबारों ने अपनी अहम भूमिका निभाई। सरकार की जनविरोधी नीतियों एवं अत्याचारों के खिलाफ खबरें छापी गई। प्रकाशित हुए समाचार पत्रों को उनकी मदद के लिए बैंक ही किया गया था कि उनके संपादकों को जेल तक जाना पड़ा।
तो वहीं दूसरी ओर बसा टिहरी रियासत के अधीन गुलाम जनता की समस्याओं से परेशान हैं। ऐसे में इन्हें स्थानीय समस्याओं को प्रमुखता से उठाने वाले किसी अखबार की जरूरत महसूस होने लगी। साल बाद व्हाट्सएप में नैनीताल से समय विनोद नाम का एक अखबार प्रकाशित होने लगा। उत्तराखंड में स्थानीय पत्रकारिता का उद्भव इसी अखबार से माना जाता है। इसके बाद अल्मोड़ा से अखबार प्रकाशित होने लगा। जो कि 48 सालों तक चला 1883 पूर्वांचल समाचार भी प्रकाशित होने लगा। स्थानीय क्षेत्र में मिसाल 1902 में लैंसडाउन से गिर इजाजत नैथानी ने गढ़वाल समाचार का प्रकाशन किया है। उनके मासिक पत्र का प्रकाशन होना शुरू हुआ। गढ़वाली उत्तराखंड में पत्रकारिता के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित को गढ़वाली अखबार को गढ़वाल यूनियन द्वारा प्रकाशित किया गया था। गढ़वाली को शुरू करने वालों में गिर जाते खानी तारा दत्त गैरोला उस अंबर तक चंदोला चंद्रमोहन रतूड़ी और धनानंद खंडूरी प्रमुख थे। ब्रिटिश कुमाऊ गढ़वाल का पहला आगरा की। गढ़वाली का प्रकाशन शुरू होने के एक महीने बाद इसकी वार्षिक ग्राहक संख्या 117 साल बाद ही इस प्रकाशन संख्या 444 तक पहुंच सरकुलेशन में भी इजाफा हो रहा था। पर ही लेख पसंद करने लगे थे कि साल 1911 में गढ़वाली प्रेस की स्थापना की पुस्तकें भी प्रकाशित होने लगी। गढ़वाली पहाड़ के कई उभरते हुए लेखक एवं कवियों को अपनी कृतियां प्रकाशित करने का भी मौका मिलने लगा। 25 अप्रैल 1913 में राजा कीर्ति शाह की मौत हुई। उस समय कीर्ति शाह के सबसे बड़े बेटे नरेंद्र शाह की उम्र 15 साल की थी। लिहाजा टिहरी की गद्दी पर 1919 तक रीजेंसी शासन रहा। रिजल्ट के तहत अंग्रेजी आईपीएस अधिकारी स्थिति में 6 साल तक राज किया। इस दौरान गढ़वाली अखबार में कई लेख प्रकाशित हुए जिनमें रीजेंसी द्वारा किए जा रहे कार्यों की आलोचना की। प्रसिद्ध इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद डबराल अपनी किताब टिहरी गढ़वाल राज्य का इतिहास भाग 2 में लिखते हैं। इससे में अयोग्य शासन था। उसकी प्रजा से सहानुभूति थी और वह न्याय तथा अधिकारियों के दल बंधी तथा चाटुकार ऊपर नियंत्रण न कर सका। जिस कारण विभिन्न विभागों में क्या पुरुषों को सफलता मिलने लगी और इमानदार कर्मचारियों को तंग किया जाने लगा। बड़ी बात यह हुई कि शहर को स्वयं की प्रशंसा सुनने में सुनने में आनंद आने लगा। संरक्षण समिति के सदस्यों ने उनके नाम पर राजधानी ड्रामाटिक क्लब की स्थापना कर बहुत खुश हुआ और उसने भवानी दनियालपुर संरक्षण समिति का सचिव नियुक्त कर दिया। इसके बाद कई बड़े अधिकारियों ने चंद्रमोहन थोड़ी असत्य शरण थोड़ी शामिल थे। इन सभी घटनाओं पर गढ़वाली अखबार ने जमकर लिखा है जिससे नाराज होकर रीजेंसी के अध्यक्ष नवंबर 1919 में जब टिहरी रियासत में नरेंद्र शाह का राज्याभिषेक हुआ तो गढ़वाली अखबार में 72 प्रश्नों का विशेष अंक प्रकाशित हुआ। लेकिन वक्त आने पर गढ़वाली अखबार ने राजा के खिलाफ भी खबरें खूब लिख के चलते कई बार राजा ने अखबार पर अपना गुस्सा भी जाहिर किया। इसी दौरान किए पुलिस ने घटना का जिक्र टिहरी रियासत में वजीर रहे। पंडित कृष्ण दत्त ने अपनी किताब टिहरी का इतिहास में करते हुए लिखते हैं।
कि 30 मई 1930 का दिन था। उत्तराखंड में यमुना नदी के किनारे बसे रमाई ने रियासत के सैनिकों ने दीवान चक्रधर जाल के कहने पर नए वन कानूनों के खिलाफ आंदोलन कर रहे अनेको लोगों पर गोलियां बरसा दी थी। गढ़वाल का इतिहास भाग 2 में इतिहासकार शिव प्रसाद डबराल लिखते हैं कि इस कांड में 100 से ज्यादा लोग मारे गए। वहीं घायलों का आंकड़ा इससे भी कहीं ज्यादा था। रावण कांड के बाद दीवान चक्रधर जनता शब्द से संबोधित करने लगी थी। इस घटना के बारे में जानकारी मिली तो राजा यूरोप से वापस लौट आए। वापस के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों के बावजूद राजा ने चक्रधर जुयाल के प्रति कोई कार्रवाई तो दूर की बात नाराजगी तक व्यक्त नहीं की बल्कि उल्टा आंदोलनकारियों पर मुकदमा चला दिए एवं जेल की सजा सुना दी। इस विभक्त नरसापुरम आई कांट के नाम से जाना और उत्तराखंड के जलियांवाला बाग की संज्ञा दी गई। राजा के शासन के खिलाफ गढ़वाली अभय इंडियन एवं स्टेटस रिफॉर्मर आज समाचार पत्रों में कई सारी खबरें एवं लेख प्रकाशित हुए।
30 मई 1930 को खिलाड़ी कांड के बाद 28 जून 1930 के गढ़वाली ने किसी दवाई निवासी के नाम से दवाई से संबंधित खबर छपी रवाई कानपुर गढ़वाली अखबार ने लिखा था। प्रजापत फौज को चढ़ा कर ले जाना और उसको गोली का शिकार बनाना या पंडित चक्रधर जुयाल का ही काम है जो बात रमाई में हुई ब्रिटिश राज्य में होती तो कितना शोरगुल ना मैं जाता किंतु तिलाड़ी में जो डायल और गलती हुई उसका कोई पूछने वाला नहीं है। 2 दिन बाद 30 जून को दिल्ली दरबार के सेक्रेटरी द्वारा भेजा गया। प्रतिवाद 12 जुलाई 1930 के गढ़वाली के अंत में कहा गया था कि गोलियों से 4 आदमी मारे गए और 2 लोग घायल तथा 194 आंदोलनकारियों को गिरफ्तार किया गया था। गढ़वाली की तरह हिंदू संसार नामक पत्र में भी प्रयास के कार्यों एवं नीतियों के खिलाफ छपे लेखों को चक्रधर ने राज्य के साथ-साथ राजा एवं स्वयं की प्रतिष्ठा के लिए अपमानजनक बताया और उसके खिलाफ कोर्ट में चला गया। केस में आने वाले खर्च की राशि महाराजा द्वारा जारी कर दी गई। सरकार ने धीरे-धीरे गढ़वाल कुमाऊं के निवासियों की संपत्ति पर अपना कब्जा जमाया है। यहां की प्रजा जो एक समय गांव के अंदर की भूमि की पूर्ण स्वामी नहीं होती थी, आज वही अपने खेत की दोनों से बेदखल कर दी गई है। इस बर्फानी देश में सिर्फ से प्राण रक्षा करने के लिए लकड़ी का मिलना भी कठिन हो गया है। मकान की लकड़ी के लिए तो क्या ही कहना सरकार अपने लाभ के लिए जंगलों पर रुपया खर्च कर रही है, पर प्रजा के लाभ के लिए उसने कुछ नहीं किया। जंगलों की इस प्रकार बढ़ती हुई शक्ति से प्रजा के कष्ट की मात्रा दिन दिन बढ़ रही है। चक्रधर संसार में जो भी लेख प्रकाशित हुए हैं वह गढ़वाली के संपादक विशंभर चंदोला ने स्वयं लिखे थे के कहने पर लिखे गए इस पत्र के संपादक एवं कुछ अन्य व्यक्तियों के खिलाफ केस दर्ज किया गया। सब की ओर से देहरादून के न्यायालय में अभियोग चलाया गया। सुनवाई के दौरान स्वयं उपस्थित एवं उनके साथियों के पक्ष में बोलने वाला कोई मौजूद नहीं था। असल में रियासत की जनता में से किसी का भी रियासत के विरुद्ध कुछ भी कहना अनेकों मुस्लिमों को गले लगाना था। धन बल एवं चक्रधर जैसे अनुभवी पुलिस के सामने संगोला का लड़ाई जीत पाना मुश्किल था। ऐसे में वे न्यायालय ने दोषी सिद्ध की। इसके बाद उन्होंने हाईकोर्ट में अपील की मगर यहां भी उन्हें सफलता नहीं मिल पाई। फल स्वरुप 1 साल की अवधि के लिए जेल में डाल दिया गया। लेकिन चंदोला ने माफी मांगना स्वीकार नहीं किया बल्कि अपने लिख दिया। गढ़वाली के संपादक विशंभर चंदोला मार्च 1933 से फरवरी 1934 तक जेल में रहे और इस दौरान दिसंबर तक चंदौली भाई प्रेम भगत चंदोला गढ़वाली के संपादक रहे। गढ़वाली ने जनता का साथ दिया। असल मायनों में पत्रकारिता की अनूठी मिसाल पेश की। गढ़वाली ने हर तरह के मुद्दों के बारे में लिखकर सरकार का ध्यान खींचा। जंगलात की समस्याओं पर मुखर होकर गढ़वाली ने जंगलात की। पक्की नामक शीर्षक के साथ अखबार सरकार ने धीरे-धीरे गढ़वाल कुमाऊं के निवासियों की संपत्ति पर अपना कब्जा जमाया है। यहां की प्रजा जो एक समय गांव के अंदर की भूमि की पूर्ण स्वामी नहीं होती थी, आज वही अपने खेत की दोनों से बेदखल कर दी गई है। इस बर्फानी देश में सिर्फ से प्राण रक्षा करने के लिए लकड़ी का मिलना भी कठिन हो गया है। मकान की लकड़ी के लिए तो क्या ही कहना सरकार अपने लाभ के लिए जंगलों पर रुपया खर्च कर रही है, पर प्रजा के लाभ के लिए उसने कुछ नहीं किया। जंगलों की इस प्रकार बढ़ती हुई शक्ति से प्रजा के कष्ट की मात्रा दिन दिन बढ़ रही है।
1918 के आसपास लगभग सभी स्थानीय समाचार पत्र बेगार एवं वन कानूनों की आलोचना करने लगे। गढ़वाली ने इस पर लिखा जंगलीघाट बदायूं शादी स्थानीय कष्टों के लिए हमको चाहिए। हमारी मौत से समाचार पत्रों की अतिरिक्त संस्थाओं द्वारा भी इसका तुमुल आंदोलन होना चाहिए। बिना रोए तो मां भी बच्चे को दूध नहीं पिलाती। इसलिए सरकार से अपने कष्टों को दूर करने के लिए कहना कोई राजगुरु नहीं है। महिला शिक्षा एवं अधिकारों के बारे में गढ़वाली अखबार ने कई सारे लेखक एवं ऐसी खबरों को अपने संपादकीय पृष्ठ में जगह दी। साल 1913 में संपादक विशंभर दास चंदोला द्वारा उन लड़कियों का इंटरव्यू किया गया जिन्हें गढ़वाल से मुंबई भेज दिया गया था। गढ़वाल ने इस मुद्दे के बारे में प्रमुखता से छापा गढ़वाल क्षेत्र की जनता को सामाजिक चेतना से भरा पर आंदोलन करने के लिए एकजुट किया।
विरोध गढ़वाली दलित वर्ग के अधिकार एवं उनकी आर्थिक स्थिति के प्रति संवेदनशील रुख अपनाया। दलितों को शिक्षा के प्रति सजग किया एवं उन्हें सेना में जाने के लिए प्रोत्साहित किया। पहाड़ में बहुत से लड़के नहीं थी तो गाड़ियों की पहुंच भी नहीं थी। ऐसे ने 1938 से 1940 के दशक में गाड़ी सड़क आंदोलन ने जोर पकड़ा। इस समय भी गढ़वाली क्षेत्र की सड़कों की खस्ता हालत को अपने लेखों के माध्यम से उजागर के गढ़वाली ने कुली बेगार जंगलात सड़क शिक्षा स्वास्थ्य, रोजगार पानी, बंदर, भालू एवं सोरों के हमले महिला अधिकार छुआछूत खेती। साथ ही देश से जुड़े मुद्दे बंगाल, विभाजन, असहयोग, आंदोलन, क्रांतिकारी आंदोलन एवं तमाम मुश्किलों के बावजूद बड़े ही निर्भीकता के साथ गढ़वाली को चलाते रहने में कोई कसर नहीं छोड़ी। इसके लिए उन्होंने अपनी बंदूक प्रेस की कुछ मशीनें और यहां तक कि गांव की कुछ जमीन तक भेज आ गई थी। चंदोला के समर्पण की वजह से ही उन्हें गढ़वाल में पत्रकारिता जगत का भीष्म पितामह भी कहा गया। गढ़वाली का अंतिम उपलब्ध मार्च 1952 का फसल जल पक्षधर पत्रकारिता का समाज में योगदान बहुत है। 12 मई कार्यक्रम आपको कैसा लगा हमें कमेंट करके जरूर बताएं
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