"गुप्तकालीन मध्य हिमालय का राजनीतिक इतिहास अभी तमाच्छन्न है। प्रयाग-प्रशस्ति तथा लाखामण्डल खण्डित शिलालेख से तत्कालीन राजनीतिक स्वरूप की एक अपूर्ण रूपरेखा ही हमें मिलती है।,,
कुणिन्दों का कर्तृपुर-राज्य
समुद्रगुप्त ‘पराक्रमाङ्क' की प्रयाग-प्रशस्ति में नेपाल के पश्चात् वर्णित 'कर्तृपुर' गुप्त साम्राज्य में एक 'प्रत्यन्त' (सीमावर्ती) राजतन्त्र राज्य था।' नेपाल के पश्चिम में स्थित ‘कर्तृपुर' का समीकरण गढ़वाल-कुमाऊँ से किया जाता है, जिसमें रुहेलखण्ड और यमुना का पश्चिमी भाग भी सम्मिलित रहा होगा। २ राजशेखर के काव्यमीमांसा (६वीं शती) में उद्धृत एक श्लोक से विदित होता है कि हिमालय-अवस्थित 'कार्तिकेयनगर' में कोई बलशाली खसाधिपति शासन करता था। विशाखदत्त के देवीचन्द्रगुप्तम् (छठी शती) एवं बाण के हर्षचरितम् में उसे 'शकपति' कहा गया है। उस 'खसाधिपति' अथवा 'शकपति' ने मध्य हिमालय में गुप्त सम्राट चन्द्रगुप्त (द्वि०) के ज्येष्ठ भ्राता रामगुप्त के साथ युद्ध किया था और रामगुप्त को विजितकर उसकी पत्नी ध्रुवदेवी की माँग की थी। हम अन्यत्र बता चुके हैं कि यह 'कार्तिकेयनगर', जिसे आगे ताम्रपत्राभिलेखों में 'कार्तिकेयपुर' कहा गया है, कर्तृपुर-राज्य की राजधानी था जिसकी स्थिति गढ़वाल हिमालय की अलकनन्दा-घाटी में कार्तिकस्वामी देवस्थल के निकट थी। २क रामगुप्त तथा खसाधिपति के मध्य हुए 'युद्ध का स्थल' यही कार्तिकेयपुर है।
उक्त अभिलेखीय एवं साहित्यिक स्रोतों से गुप्तकाल में मध्य हिमालय में एक बलशाली ‘कर्तृपुर राज्य' की स्थिति तो ज्ञात होती है, परन्तु उनसेउसके राजवंश आदि के सम्बन्ध में अन्य सूचनाएँ ज्ञात नहीं होतीं। रा०दा० बनर्जी आदि कुछ विद्वानों ने उस शकपति की पहचान किसी कुषाणवंशी शासक से की है। परन्तु कुषाणों का प्रवेश कर्तृपुर राज्य के आन्तरिक भाग में कभी नहीं हुआ था। पुनः, इस सन्दर्भ में वराहमिहिर द्वारा कौणिन्दों का उल्लेख २ महत्त्वपूर्ण है। इस आधार पर मैं पूर्व ही बता चुका हूँ कि “यह असम्भव नहीं है कि यह 'खसाधिपति' अथवा 'शकपति' कुणिन्द शासक रहा हो।" ४ अन्य अन्वेषकों के अनुसार भी, “समुद्रगुप्त के इस अभिलेख में इस ' प्रकार कुणिन्दों का ही उल्लेख है, जो कुणिन्द नाम से नहीं प्रत्युत उनकी राजधानी कार्तिकेयपुर के नाम से किया गया है।" ५ अस्तु, असंदिग्ध रूप से रामगुप्त का यह युद्ध कुणिन्द राजा से हुआ था।
गुप्त साम्राज्य का कौणिन्द नामक यह 'प्रत्यन्त' राज्य कदाचित् गुप्तों के सीधे शासनान्तर्गत तो नहीं परन्तु “करदान-आज्ञाकरण" तक सीमित था। इस प्रकार, कर्तृपुर राज्य कौणिन्द वंश का ही अर्द्ध-स्वतन्त्र राज्य था। स्कन्दगुप्त तक सम्भवतः यही स्थिति बनी रही। क्योंकि उसकी मृत्यु पर्यन्त गुप्त साम्राज्य की सीमाएँ पूर्णतः सुरक्षित रहीं। हिमालयीय इतिहास में यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि अतीतकालीन कुणिन्द सत्ता, अपने अनेक उत्थान-पतन देखते हुए, राजनीतिक परिस्थितियों के अनुसार, कभी एकराज तथा कभी गणतन्त्र ग्रहणकर, एक अविच्छिन्न धारा के रूप में इस काल में भी अस्तित्व में थी। परन्तु साम्राज्यभोगी गुप्तों के उदय के उपरान्त अब उनकी शक्ति क्षीण हो गयी थी।
छागलेश का राजवंश
'लाखामण्डल खण्डित शिलालेख' ६ से ज्ञात होता कि यामुन प्रदेश में पञ्चम शती ईसवी के आस-पास छागलेश का राजवंश शासन करता था। इस अभिलेख में उसके पूर्वज कम-से-कम सात नरेशों के नाम इस क्रम से वर्णित हैं : (१) नरपति जयदास, (२) [नाम क्षत], (३) गुहेश, (४) अचल, (५) [नाम क्षत], (६) छागलेशदास, (७) रुद्रेशदास, (८) छागलेश ,[केतु], और (९) [नाम क्षत]। अभिलेख से छागलेश के राजवंश, उसके शासित प्रदेश, आदि के सम्बन्ध में कोई सूचना नहीं मिलती। यमुना के किनारे स्थित लाखामण्डल में उसके शिलालेख की प्राप्ति से इतना ज्ञान होता है कि इसके आस-पास का क्षेत्र उसके राज्यान्तर्गत था।
यामुन प्रदेश में ही कालसी के आस-पास, पूर्व-गुप्तकाल से यादवों की एक शाखा शासन कर रही थी, इसका ज्ञान 'लाखामण्डल-प्रशस्ति' से होता है। इस राजवंश के संस्थापक श्री-सेनवर्मन् का राज्यारोहण काल बूलर ने चतुर्थ शती ईसवी के आरम्भ में अनुमान किया है। ज्ञान की वर्तमान अवस्था में, यदुवंशीय सेनवर्मन् तथा 'दास' नामान्त छागलेश के राजवंशों में पारस्परिक सम्बन्ध के विषय में अधिक विवरण प्रस्तुत नहीं किया जा सकता। इतना स्पष्ट है कि 'लाखामण्डल खण्डित शिलालेख' का छागलेश, कुणिन्दों के कृर्तृपुर-राज्य के पश्चिम में कोई स्थानीय नरेश था। इस शिलालेख के मूल पाठ " के के पुनरीक्षण से कुछ अधिक सूचनाएँ प्राप्त हो सकती हैं। ७
यमुना-उपत्यका के ये राजवंश भी क्या कुणिन्दों की ही शाखाएँ तो नहीं थे? क्योंकि यामुन-प्रदेश ही कुणिन्दों की मूलभूमि थी।
अगला पृष्ठ
Post a Comment
if you have any dougth let me know