गढ़वाल। गढ़वाल का इतिहास। टिहरी गढ़वाल का इतिहास। गढ़वाल का विकास। गढ़वाल का विभाजन। गढ़वाल के रचयिता

गढ़वाल 

ढ़वाल (गढ़राज्य) मे पँवार-काल की प्रशासनिक संरचना व विकास का कोई क्रमबद्ध विवरण नहीं मिलता यह तथ्य इतिहास के रूप मे ही लिखा गया है


गढ़देश पँवारकाल में 'मण्डलों' में तथा मण्डल 'पट्टियों' में विभाजित थे।इन पट्टियों में से कुछ पट्टियाँ अनेक कारणों से पूर्वकाल में परगनों के रूप में भी रहीं। पँवार-अभिलेखों में देवलगढ़-मण्डल, नागपुर-मण्डल, कपिरि-मण्डल, बनगढ़-मण्डल, मलेथा-मण्डल, भरदार-मण्डल, रमोलि-मण्डल, उदयपुर-मण्डल, आदि मण्डल इकाइयों का उखेख मिलता है गढ़वाल। 'मण्डल' ही उत्तर-पँवारकाल में 'परगना' कहलाये। सर्वप्राचीन सूचियों में से एक में, प्रारम्भ में गढ़राज्य के पूर्वी भाग में सत्रह परगने इस प्रकार थे :--


1:-  अजमेर,           2:- उदयपुर,      3:- सलाण,           4:- सीला 

4:- बारहस्यूँ,        6:- देवलगढ़,      7:- चोपड़ाकोट,      8:- धनपुर,

9:-चान्दपुर,        10:- कपीरी,        11:-खाटली,             12:-नागपुर,

13:- लोहबा         14:-बधाण,        15:-दशौली,            16:- पैनखण्डा

 17:- परकण्डी 

ब्रिटिश शासनकाल (1815-1647 ई०) : पी० व्हैली ने ठीक लिखा है कि कुमाऊँ डिवीजन का प्रशासनिक इतिहास तीन कालखण्डों में विभक्त है-

(1) जॉर्ज वि० ट्रेल के अधीन,

(2) बैटन के अधीन (1836 -1856), तथा

(3) सर हेनरी रैमजे के अधीन (1856)।

             किन्तु जहाँ तक गढ़वाल का सम्बन्ध है, हमारा प्रयोजन मुख्यतः ट्रेल, बैटन तथा बैकेट के भूमि-प्रबन्धों' पर केन्द्रित है।



1अगस्त 1817 को ट्रेल कुमाऊँ का कमिश्नर बनाया गया था।अक्टूबर 1815में ही उसे गढ़वाल में भूमि-प्रबन्ध का कार्य सौंपा गया था। उसका प्रशासन 1815 से 1835ई० तक रहा। उसने सन् 1821 के 'भूमि-प्रबन्ध' द्वारा, देहरादून को छोड़कर, गढ़वाल के पूर्वकालीन सत्रह परगनों की संख्या को घटाकर 11 (ग्यारह) कर दिया। 'सलाण' तीन परगनों में विभाजित हुआ। विघटित परगने थे- अजमेर, उदयपुर, सीला, चोपड़ाकोट, धनपुर, कपीरी, खाटली, परकण्डी तथा लोहबा। जिन्हें अन्य परगनों में समेकित कर दिया गया। ग्यारह परगनों तथा उनकी 48 (अड़तालीस) पट्टियों का वर्णन अपने मुलुक का भूगोल (1865ई०) में मिलता है। ट्रेल के प्रयास से, 1826 में परगना चण्डी तथा देहरादून कुमाऊँ कमिश्नरी में मिला दिये गये, किन्तु इस व्यवस्था में आगे परिवर्तन किया गया। जब हम ‘गोरख्याणी' से तुलना करते हैं तब हमें श्री ट्रेल की प्रशंसा में बैटन द्वारा लिखे ये शब्द अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं लगते–“विशेष रूप से इस प्रान्त का गढ़वाल वाला भाग विगत शासकों के अत्याचार के कारण जन-विहीन क्षेत्र बन गया था। किन्तु जब उसने इसे छोड़ा तो यह क्षेत्र पूर्व की तुलना में स्वर्ग था। यहाँ के लोग उसे और जिस सरकार का वह प्रतिनिधि था, दोनों को दुआएँ दे रहे थे।"

गढ़वाल में बैटन ने वर्ष 1838-41  में 'नवाँ भूमि-प्रबन्ध' बीस वर्षों के लिए किया।

जे०ओ' बी० बैकट ने 1861से 1864 के भूमि-प्रबन्ध द्वारा परगनों की  संख्या पूर्ववत् ग्यारह ही रखी, किन्तु पट्टियों की संख्या 48 से बढ़ाकर 86 कर दी। यही नहीं, उसने प्रशासनिक इकाइयों के आकार में भी बड़ा परिर्वतन किया। कालान्तर में, तखा सलाण से पृथक्कर नया परगना 'भाभर' पापातलीदूण) बनाया गया। जिसमें हल्दूखाता, सुकरौ तथा मोटाढाक तीन पट्टियाँ बनीं। फलस्वरूप, परगनों की संख्या बारह तथा पट्टियों की संख्या छननबे (86) हो गयी।

1815 ई० में गढ़वाल-विभाजन हुआ। फलस्वरूप, टिहरी गढ़वाल राज्य अस्तित्व में आया। 1826 ई० में कम्पनी सरकार तथा 'गढ़वाल राज' के मध्य पॉलिटिकल एजण्ट की नियुक्ति की गयी। प्रशासनिक सुविधार्थ गढ़राज्य का यह भाग भी पँवारकाल से मण्डलों-पट्टियों में विभक्त था। सन् 1873 में महाराजा प्रतापशाह ने इसे राजस्व दृष्टि से भी 22 पट्टियों में विभक्त किया। गढ़वाल वर्णन (1610ई०) भूगोल में, टिहरी गढ़वाल राज्य के छः परगनों तथा उनकी पट्टियों की सूची इस प्रकार दी गयी है



1. रवाञी  (23पट्टियाँ)।                  2. जौनपुर (17 पट्टियाँ)


3. सकलाना।                                4. उधेपुर (3 पट्टियाँ)


5. बनगढ़ (3 पट्टियाँ)।                     6. चिखा (4  पट्टियाँ)।



 गमरी,धनारी, बाड़ागढ़ी, टकनौर, नाल्ड-कटूड, थाती-कटूड, रमोली, भदूरा, वोण, रैका, धारमण्डल, कोटी-फैगूल, भरपूर, पालकोट, कुईली, कुँजणी, धार-आकरियाँ भिखंग-साँकरी, बाँगर, बड़मा, सिलगढ़, चौरास, भदूरा, लस्या, इत्यादि। सन् 1630 के 'टिहरी गढ़वाल राज्य मानचित्र' में 11 परगनों तथा उनकी अस्सी (80)पट्टियों का उखेख है।


टिहरी गढ़वाल राज्य में ही सकन्याणा वा सकलाना की जागीर थी।, “पहाड़ में सकन्याणा, द्योरी, अठुड़, कोट-पड्यार एवं सोनारगाँव तथा दूण में बाजावाला गाँव गढ़-नरेश ने शिवराम सकन्याणी को उसकी सेवाओं के लिए इस शर्त पर 'जागीर' के रूप में दिये थे कि वह कच्चे पाँच सौ रुपए वार्षिक भेंट के रूप में देगा। गढ़वाल पर गोरखा-विजय के पश्चात् यह अनुदान वापस ले लिया गया। किन्तु इसके उपरान्त ब्रिटिश अधिकार आने पर श्री फ्रेजर के ‘परवाना' के द्वारा जागीर (कुछ सेवाओं के बदले) शिवराम को लौटा दी गयी। परवाने से यह पुष्टि की गयी कि शिवराम बाइस पर जैसा अधिकार पहले था वैसा ही रहेगा। परन्तु इसका अर्थ यह लगाया गया कि यह जीवनभर को राजस्व-मुक्त है। वर्ष 1818 में शिवराम की [ हो गयी और गढ़-नरेश ने माँग की कि या तो जागीर उसे लौटा दी जाय या उसे पूर्व की भाँति 'भेंट' प्राप्त हो।" 



संक्षेप में, यह जागीर कभी टिहरी गढ़वाल राज्य से स्वतन्त्र नहीं रही। सकन्याणा की जागीर का अधिकार राजा को भेंट के भुगतान के अनुबन्ध पर था। 'टिहरी गढ़वाल राज्य मानचित्र' (1630 ई०) में 'सरल्याणा' नरेन्द्रनगर परगना की एक पट्टी के रूप में अङ्कित है। नारायण सिंह राणा की 'टिहरी.। गढ़वाल राज्य एटलस' (1648 ई०) में सकलाना' परगना सहित बारह परगनों का उखेख मिलता है।


 1815ई० में दूण तथा जौनसार बावर ब्रिटिश सत्ता के अधीन आये। कम्पनी सरकार के रेजल्यूशन 17 नवम्बर 1815 के द्वारा देहरादून का सहारनपुर जनपद में विलय का आदेश हुआ, और इस विलय को 1817 ई० के विनियम (रेगुलेशन) चतुर्थ द्वारा वैधता प्रदान की गयी थी। यह व्यवस्था कुछ ही काल रही। 1825 ई० के रेगुलेशन 21 के पश्चात् ‘दूण' को कुमाऊँ कमिश्नरी में विलय किया गया। परन्तु पुनः 1826 के रेगुलेशन 5 द्वारा उसे 1 मई 1826 से कुमाऊँ से पृथक् किया गया। 23 दिसम्बर 1842 ई० में एक रेजल्यूरॉन द्वारा मसूरी जौनसार सहित दूण को सहारनपुर जनपद से सम्बद्ध कर दिया गया।

जौनसार-बावर

जौनसार-बावर क्षेत्र पूर्वकाल से ही गढ़देश का अङ्ग था। गोरखा-अभियान के समय कुछ काल के लिए यह सिरमौर नरेश के अधीन रहा। परन्तु कम्पनी द्वारा गोरखों के निष्कासन के पश्चात्,  ई० में पुनः गढ़देश का अङ्ग बन गया।  1815से 1828 ई० के अन्त अर्थात् कै० यंग तक जौनसार-बावर का प्रशासन दिखी स्थित रेजिडेण्ट के अधीन एक सुपरिटेंडेंट के प्रभार में पृथक् रूप से होता रहा। ‘चौंतरू' प्रशासन में सहयोग देता था। 1826 ई० के विनियम पाँचवें के द्वारा यह परगना दूण जनपद में मिला दिया गया। देहरादून तहसील में पूर्वकाल में पाँच परगने थे- पछवा दूण में कल्याणपुर एवं सुन्तूर तथा पूर्वा दूण में वसन्तपुर, सौड़ी एवं सहजपुर।1863 ई० से प्रारम्भ हुए ‘भूमि-प्रबन्ध' द्वारा, देहरा तहसील में इन्हें घटाकर दो ही परगने रखे गये-पछवा दूण तथा पूर्वा दूण।' दूण के उत्तर में, चकराता तहसील में जौनसार तथा बावर दो परगने हैं। जौनसार परगना 36 खतों में तथा बावर 5 खतों में विभक्त है। इन खतों में प्रत्येक पर एक 'सयाणा' होता है। जौनसार-बावर का प्रशासन चार ‘चौंतरों', 'खत-सयाणों' तथा 'ग्राम-सयाणों' द्वारा होता था। सबसे प्रभावशाली चार सयाणे ही 'चौंतरा' कहलाते थे।





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