गोरखाओ का इतिहास

गोरखा

(GORKHA INTERREGNUM) 


   ( नेपाल में गोरखा शक्ति का उदय )



वर्तमान उत्तराखण्ड की पूर्वी सीमा पर, काली-कर्णाली प्रदेश में डोटी, दुलू तथा जुमला के राजाओं का शासन था। डोटी के रैणका राजा तो कुमाऊँ से ही सम्बन्धित थे। बाइस राज्य-समूह कर्णाली प्रदेश में थे। कर्णाली से पूर्व में, काठमाण्डू-उपत्यका के पश्चिम में सप्तगण्डकी के चौबीस राज्य-समूह थे। गोरखा राज्य की गणना चौबीस राज्यों में थी। इनके पूर्व में अन्य बहुसंख्यक लघु राज्य थे। इस प्रकार, 'गोरखों' द्वारा एकीकरण से पूर्व, नेपाल पचास से अधिक लघु राज्यों में बँटा था। इनमें मगर नामक पर्वतीय जाति के 'साही-ठकुरी' वंश के एक छोटे राज्य को एक शक्तिशाली राज्य बनाने तथा नेपाल का एकीकरण आरम्भ करने का कार्य पृथ्वीनारायणशाह (1742-75 ई०) ने किया था। उसके पुत्र सिंहप्रतापशाह ने मात्र तीन वर्ष से अल्पकाल तक शासन किया। सिंहप्रताप के पुत्र रणबहादुरशाह (1778-66 ई०) को ढाई वर्ष की अवस्था में राजगद्दी प्राप्त हुई। अतएव रानी इन्द्रलक्ष्मी उसकी संरक्षिका बनी। पश्चिम में चौबीसी प्रदेश के शेष राज्यों तथा जुमला, दुलू, डोटी, दारमा, जुहार, आदि राज्यों को विजित करने का श्रेय उसके चाचा तथा संरक्षक बहादुरशाह को है। 1786-60 ई० में गोरखा सीमा उसके सेनापति अमरसिंह थापा के नेतृत्व में काली नदी तक पहुँच गयी।
            

 नेपाली दरबार काली से पश्चिमवर्ती कुमाऊँ शासकों की निर्बलता को जानता था। राज्य में पारस्परिक फूट थी तथा राजकोष रिक्त था। अतएव गोरखा इसे निगलने के लिए कृतसङ्कल्प थे। हर्षदेव जोशी ने अपनी चिट्ठियों द्वारा गोरखों को सभी रहस्य बता दिये थे तथा सहयोग का वचन दिया था। एटकिन्सन स्वार्थपूर्ण तथा देशद्रोह" बताया।ऊपर से हर्षदेव जोशी जैसा घर का विभीषण अपनी वैयक्तिकमहत्त्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए गोरखों को सहायता देने के लिए तैयार था।" अतएव 1760 ई० में गोरखा सेना ने डोटी से चौतरिया बहादुरशाह, काजी जगजीत पाण्डे, सूबेदार अमरसिंह थापा एवं शूरवीर थापा के नेतृत्व में कुमाऊँ पर आक्रमण कर दिया। राजा महेन्द्रचन्द और उसके चाचा कुँवर लालसिंह ने गोरखा सेना का कई बार प्रतिरोध किया, परन्तु अन्ततः हार गये। संवत् 1847 चैत्र कृष्ण प्रतिपदा (1760 ई०) को जब अलमोड़ा में गोरखों का प्रवेश हुआ, तब उनके साथ हर्षदेव भी था।

गोरखों का गढ़वाल पर प्रथम आक्रमण 

गोरखों को गढ़वाल पर आक्रमण का आमन्त्रण भी हर्षदेव जोशी ने दिया था। जब 1761 ई० में गोरखों का गढ़वाल पर प्रथम आक्रमण हुआ, तब हर्षदेव अलमोड़ा से गोरखों को सहायता पहुँचा रहा था। लंगूरगढ़ में वीर गढ़वाली सेना वर्षभर गोरखों का सामना करती रही। जिससे गोरखा अभियान लंगूरगढ़ से आगे न बढ़ सका, और वे इस दुर्गम गढ़ को विजित न कर सके। तभी नेपाल पर चीनी आक्रमण की सूचना पाकर गोरखों ने 1762 ई० में लंगूरगढ़ का घेरा उठा दिया। 'लंगूरगढ़ की सन्धि' में, गढ़ नरेश प्रद्युम्नशाह ने नेपाली शक्ति से "भयभीत होकर" (impressed) अथवा “उससे मुक्ति पाने के लिए", वार्षिक कर देना स्वीकार किया।2 जो हो, इससे दोनों के मध्य कुछ समय तक शान्ति बनी रही।


1762ई० में गोरखों को अलमोड़ा भी छोड़ना पड़ा था। नेपाल की चीन से सन्धि होने के पश्चात् ही, गोरखा सेना अलमोड़ा लौटी। इस काल राजा महेन्द्रचन्द तथा कुँवर लाल सिंह ने बिरगल गाँव तथा बाड़ाखेड़ीगढ़ के दो युद्धों में ही कुमाऊँ की पुर्नप्राप्ति का प्रयत्न नहीं किया अपितु रोहिला नवाब गुलाम मुहम्मद खाँ की सेना की सहायता से किलपुरी के दुर्ग से अलमोड़ा पर आक्रमण करने का निश्चय भी किया। परन्तु काजी अमरसिंह थापा ने इस प्रयत्न को विफल कर दिया। सङ्कट की इस घड़ी में, महरा तथा हर्षदेव दोनों गोरखों की सहायता कर रहे थे। फलस्वरूप, चन्द शासन का अन्त हुआ। कुमाऊँ पर 'गोरख्याणी' स्थापित हो गयी।

हर्षदेव जोशी 

हर्षदेव जोशी गोरखों द्वारा अलमोड़ा-विजय के पश्चात् ही श्रीनगर दरबार में पहुँच चुका था। 1764 ई० के आसपास वह गढ़वाल दरबार में किसी पद पर नौकर था। 1767 ई० में वह गढ़वाल नरेश के वकील' के रूप में ब्रिटिश रेजिडेण्ट के पास बनारस गया था। उसने गोरखा अत्याचार का वर्णन किया परन्तु उद्देश्य में सफल न हुआ। तदन्तर वह सहायतार्थ, संसारचन्द के पास काँगड़ा गया और अन्यत्र भी। अन्त में, राजनीति में पुनः सक्रिय भाग न लेने की प्रतिज्ञाकर, वह अब कनखल में रहने लगा था। परन्तु यहाँ से भी, एक ओर, वह नेपालियों द्वारा दास बनाये जाने वालों की पुकार रेजिडेण्ट श्री फ्रेजर को दिल्ली भेजता रहा। दूसरी ओर, उसका नेपाल के राजच्युत राजा रणबहादुर से भी पत्राचार होता रहा।

कुमाऊँ के गोरखा प्रशासक 

सरकारी विवरणों के अनुसार, सन्1761-1762 में सुब्बा जोगामल्ल तथा सन् 1763 में काजी नरसाही कुमाऊँ के शासक नियुक्त हुए। नरसाही के अत्याचारों के कारण, सन् 1764 में उसके स्थान पर अजबसिंह खवास थापा तथा श्रेष्ठ थापा नियुक्त किये गये। सन् 1765 में सुब्बा अमरसिंह थापा, तत्सहायक सुब्बा गोविन्द उपाध्याय सिविल प्रशासन के तथा भक्ति थापा सेनापति पद पर नियुक्त हुए। सन् 1766 में इन्हें हटाकर,उनके स्थान पर प्रबल राणा तथा तत्सहायक जयकृष्ण थापा नियुक्त हुए। सन् 1767 में चौतरिया बमशाह तथा तत्सहायक उसका भाई रुद्रवीरशाह कुमाऊँ के सिविल शासक नियुक्त हुए। उनके स्थान पर कुछ ही मास के लिए पुनः अजबसिंह तथा श्रेष्ठ थापा, तदन्तर धौकलसिंह एवं तत्सहायक गणपति उपाध्याय नियुक्त हुए। सन् 1802 में धौकलसिंह के स्थान पर रुद्रवीरशाह, तथा सन् 1803 में काजी गजकेसर पाण्डे तथा तत्सहायक कृष्णानन्द सुबहदार सिविल प्रशासक नियुक्त हुए। सन् 1806में ऋतुध्वज थापा के स्थान पर सुब्बा चौतरिया बमशाह कुमाऊँ का सिविल शासक नियुक्त हुआ जो सन् 1815 में गोरखा शासन के अन्त तक रहा


                                                                  

8 Comments

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  1. Jay uttarakhand 💯💯💯💯💯💯

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  2. वा भाई किया लिखा है मजा आया है किया लिखा है उत्तराखंड के बारे मे 100/100

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  3. Waaa bhai kiya likha hai bhai waa bhai @

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  4. Waaaaaaa bhai kiya likha hai uttarakhand ke bare me Jay ho dev bhoomi Jay dev bhoomi👎🙏🙏🙏🙏

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